त्रिपुरा समेत नॉर्थ-ईस्ट चुनाव परिणाम आने के बाद बीजेपी में खुशी का माहौल है. अगरतला से लेकर दिल्ली तक पार्टी कार्यकर्ता जश्न मना रहे हैं, लेकिन त्रिपुरा के चुनाव परिणाम ने मध्य प्रदेश, हरियाणा और राजस्थान के नेताओं की टेंशन भी बढ़ा दी है. इसकी वजह है- बीजेपी का जीत का फॉर्मूला.
उत्तराखंड, गुजरात के बाद त्रिपुरा में मुख्यमंत्री हटाने, टिकट काटने और वरिष्ठ नेताओं को चुनाव नहीं लड़वाने का फॉर्मूला हिट रहा है. माना जा रहा है कि बीजेपी आने वाले राज्यों में भी यह फॉर्मूला लागू कर सकती है. कर्नाटक में अब चुनाव के कुछ ही महीने बचे हैं, ऐसे में वहां यह फॉर्मूला अब शायद ही लागू हो.
लेकिन मध्य प्रदेश और हरियाणा में इस फॉर्मूला के लागू होने की चर्चा जोरों पर हैं. राजस्थान और छत्तीसगढ़ में भी बीजेपी फॉर्मूले के कुछ भागों को आंशिक तौर पर लागू कर सकती है.
दरअसल आने वाले समय में जिन राज्यों में विधानसभा के चुनाव होने हैं, उसे लोकसभा का सेमीफाइनल माना जा रहा है. इनमें मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान प्रमुख है. हरियाणा में लोकसभा के बाद विधानसभा के चुनाव होना है.
ऐसे में बीजेपी की पूरी कोशिश है कि इन राज्यों में जीत दर्ज की जाए. जनवरी में राष्ट्रीय कार्यकारिणी में बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा अपने भाषण के जरिए पार्टी हाईकमान की मंशा भी जाहिर कर चुके हैं.
राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा ने कहा था कि अगर लोकसभा चुनाव में जीत दर्ज करनी है तो उसकी शुरुआत इस साल होने वाले 9 राज्यों के विधानसभा चुनाव से करनी होगी.
प्रयोग की पॉलिटिक्स में माहिर बीजेपी
बीजेपी प्रयोग की पॉलिटिक्स में माहिर है. 2014 के बाद से पार्टी ने हर चुनाव में नए-नए प्रयोग किए हैं. पार्टी को इसका फायदा भी मिला. चुनाव आयोग के आंकड़े के मुताबिक वर्तमान में देश में 4033 में से 1421 विधायक बीजेपी के हैं. कांग्रेस के मुकाबले यह आंकड़ा दोगुना है.
यूपी-एमपी समेत 16 राज्यों में बीजेपी और गठबंधन की सरकार है. केंद्र में भी बीजेपी की पूर्ण बहुमत की सरकार है. 2014 से पहले देश में कुल 4120 में से बीजेपी के पास सिर्फ 947 विधायक ही थे. उस वक्त बीजेपी और गठबंधन की सिर्फ 7 राज्यों में सरकार थी.
बीजेपी का फॉर्मूला क्या है, 3 प्वॉइंट्स...
1. मुख्यमंत्री और कैबिनेट में बदलाव- पहले उत्तराखंड फिर गुजरात और त्रिपुरा में चुनाव पूर्व बीजेपी ने मुख्यमंत्री को बदल दिया. मुख्यमंत्री के साथ ही कैबिनेट में भी फेरबदल किया गया.
उत्तराखंड में बीजेपी ने तीरथ सिंह रावत की जगह पुष्कर धामी को, गुजरात में विजय रूपाणी की जगह भूपेंद्र पटेल को और त्रिपुरा में बिप्लव देव की जगह माणिक साहा को मुख्यमंत्री बनाया.
गुजरात में पूरी कैबिनेट तो उत्तराखंड और त्रिपुरा में आंशिक फेरबदल किया गया. बीजेपी का यह फॉर्मूला तीनों राज्य में हिट रहा. पार्टी नेताओं के मुताबिक एंटी इनकंबेंसी से लड़ने में यह फॉर्मूला कारगर साबित हुआ.
2. विधायकों और मंत्रियों का टिकट कट- चुनाव से पहले बीजेपी ने गुजरात, यूपी, त्रिपुरा और उत्तराखंड में बड़ी संख्या में विधायकों के टिकट काटे. गुजरात में बीजेपी ने 42 विधायकों के टिकट काटे, जबकि त्रिपुरा में भी यह फॉर्मूला लागू किया.
यूपी में भी बीजेपी ने 40 से अधिक विधायकों के टिकट काट दिए थे. बीजेपी का यह प्रयोग भी हिट रहा और पार्टी को सभी राज्यों में जीत मिली. पार्टी आगे भी इस फॉर्मूले को बरकरार रख सकती है.
3. सीनियर नेताओं को नहीं लड़ाया चुनाव- यूपी के बाद जिन राज्यों में चुनाव हुए हैं, वहां बीजेपी ने सीनियर नेताओं को चुनाव में टिकट नहीं दिया. यूपी में हृदय नारायण दीक्षित, गुजरात में विजय रूपाणी, नितिन पटेल और त्रिपुरा में बिप्लब देव जैसे नाम शामिल हैं.
दरअसल, राज्यों में आंतरिक गुटबाजी से निपटने के लिए पार्टी ने यह फॉर्मूला अपनाया. सीनियर नेताओं को संगठन के कामों में लगाकर लोकल पॉलिटिक्स से दूर कर दिया. बीजेपी का यह फॉर्मूला भी हिट रहा और पार्टी को फायदा मिला.
बीजेपी के लिए महत्वपूर्ण क्यों है ये राज्य?
बीजेपी का यह फॉर्मूला जिन राज्यों में लागू होने की बात सियासी गलियारों में कही जा रही है, उनमें मध्य प्रदेश और हरियाणा सबसे प्रमुख है. इन दोनों राज्यों में बीजेपी की सत्ता है. इसके अलावा राजस्थान और छत्तीसगढ़ में भी फॉर्मूले के कुछ पार्ट को लागू किया जा सकता है.
जैसे- विधायकों का टिकट काटना और सीनियर नेताओं को चुनाव नहीं लड़वाने का फॉर्मूला. दरअसल एमपी, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और हरियाणा बीजेपी के लिए सबसे महत्वपूर्ण राज्य है. हिंदी पट्टी के बड़े राज्य होने के साथ ही यहां लोकसभा की सीटें भी काफी ज्यादा है.
चारों राज्यों में लोकसभा की कुल 75 सीटें हैं, जिनमें 70 सीटों पर बीजेपी का कब्जा है. बात राज्यसभा की करें तो इन राज्यों में ऊपरी सदन की 31 सीटें हैं, जो बीजेपी के लिए काफी महत्वपूर्ण है. पार्टी ने हाल ही में इन राज्यों में नए सिरे से संगठन में फेरबदल भी किया था.
फॉर्मूला लागू होने का डर क्यों?
सूत्रों के मुताबिक मध्य प्रदेश में बीजेपी ने हाल ही में एक सरकारी एजेंसी से सर्वे कराई है, जिसमें कहा गया है कि पार्टी 90 सीटों पर सिमट सकती है. राज्य में विधानसभा की कुल 230 सीटें हैं और सरकार बनाने के लिए 116 सीटों की जरूरत होती है.
2018 में भी शिवराज सिंह चौहान के नेतृत्व में बीजेपी को हार मिली थी और पार्टी 15 साल बाद सत्ता से बाहर हो गई थी. हालांकि, कांग्रेस में ज्योतिरादित्य सिंधिया की बगावत के बाद फिर से राज्य में बीजेपी सरकार बनाने में कामयाब हो गई.
2019 में हरियाणा में बीजेपी सरकार बनाने में कामयाब तो हो गई थी, लेकिन सीटें काफी कम रह गई. पार्टी को जजपा का समर्थन लेना पड़ा. मनोहर लाल खट्टर की स्थिति इस बार पहले से और खराब बताई जा रही है.
ऐसे में मध्य प्रदेश और हरियाणा में बीजेपी नेताओं को ये फॉर्मूला लागू होने का डर सता रहा है. राजस्थान और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की सरकार है और यहां बीजेपी गुटबाजी से जूझ रही है.
माना जा रहा है कि हाईकमान इससे निपटने के लिए यहां भी आंशिक रूप से इन फॉर्मूले को लागू कर सकती है. राजस्थान में बीजेपी को सत्ता में वापसी की सबसे ज्यादा उम्मीद है. यहां पीएम मोदी 4 महीने में 4 बड़ी रैली कर चुके हैं.
फॉर्मूला लागू हुआ तो किसकी हिलेगी सल्तनत
बीजेपी अगर यह फॉर्मूला पूरी तरह से हरियाणा और मध्य प्रदेश में लागू करता है, तो इससे दोनों राज्यों के मुख्यमंत्री पर सीधा असर होगा. मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान और हरियाणा में मनोहर लाल खट्टर को इस्तीफा देना पड़ सकता है.
इसके अलावा कई मंत्री भी इस फॉर्मूले के चपेट में आ सकते हैं. मध्य प्रदेश और हरियाणा में कई मंत्रियों का परफॉर्मेंस काफी खराब है, जिस वजह से उन पर कार्रवाई हो सकती है.
क्षेत्र में कम सक्रिय रहने वाले विधायकों का टिकट भी काटा जा सकता है. यह फैसला पार्टी की आंतरिक सर्वे रिपोर्ट के आधार पर लिया जाता है. वहीं कई वरिष्ठ नेता भी फॉर्मूला की वजह से रडार पर आ सकते हैं.
राजस्थान में बीजेपी ने हाल ही में वरिष्ठ नेता गुलाब चंद कटारिया को राजभवन भेज सक्रिय राजनीति से दूर कर दिया है. माना जा रहा है कि इसी तरह कुछ वरिष्ठ नेताओं को राजभवन और कुछ नेताओं को संगठन में जिम्मेदारी दी जा सकती है.
फॉर्मूला लागू करना मुश्किल क्यों?
2018 में मध्य प्रदेश में बीजेपी भले शिवराज के नेतृत्व में चुनाव हार गई हो, लेकिन पार्टी और प्रदेश में शिवराज की पकड़ काफी मजबूत है. करीब 17 साल से मुख्यमंत्री पद पर काबिज शिवराज को मध्य प्रदेश में पांव-पांव वाले मामा (जमीनी नेता) के नाम से जाना जाता है. शिवराज बीजेपी में ओबीसी चेहरा भी हैं और राज्य के हर इलाके में उनकी पकड़ मजबूत है.
यहां मुख्यमंत्री बदलने का फैसला आसान नहीं होगा. हरियाणा में भी हालात इसी तरह के हैं. यहां बीजेपी ने नॉन जाट फॉर्मूले के तहत खत्री समुदाय के खट्टर को मुख्यमंत्री बनाया था. बीजेपी को 2014 और 2019 में इसका फायदा भी मिला. ऐसे में हरियाणा में खट्टर को बदलना भी आसान नहीं है.
राजस्थान में भी बीजेपी के सामने चेहरा को लेकर मुश्किलें है. छत्तीसगढ़ में भी पार्टी आंतरिक गुटबाजी में उलझी हुई है. ऐसे में इस फॉर्मूले को लागू करना यहां जरूरी भी है, लेकिन राजस्थान में वसुंधरा और छत्तीसगढ़ में रमन सिंह को अलग-थलग करना भी आसान नहीं है.
राजस्थान में चुनाव से पहले वसुंधरा राजे अपने गढ़ पूर्वी राजस्थान में सक्रिय हो गई है. 2018 में इन इलाकों में बीजेपी को करारी हार मिली थी.
इन राज्यों में कांग्रेस क्या कर रही है?
छत्तीसगढ़-राजस्थान में कांग्रेस सरकार में है और मध्य प्रदेश-हरियाणा में मुख्य विपक्षी पार्टी की भूमिका में है, लेकिन चारों राज्यों में पार्टी आंतरिक गुटबाजी से जूझ रही है. राजस्थान में सचिन पायलट और अशोक गहलोत के बीच झगड़ा चल रहा है, जबकि छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल और टीएस सिंहदेव आमने-सामने हैं.
मध्य प्रदेश और हरियाणा में भी इंटरनल पॉलिटिक्स चरम पर है. पार्टी इन राज्यों में गुटबाजी सुलझाने में अब तक नाकाम रही है. मंच से पार्टी अध्यक्ष खरगे कई बार गुटबाजी दूर करने की बात कह चुके हैं, लेकिन इसे सुलझा नहीं पाए हैं.
राजस्थान में कांग्रेस के खिलाफ एंटी इनकंबेंसी भी है. बेरोजगारी और पेपर लीक के मुद्दे पर कांग्रेस के नेता ही गहलोत सरकार को घेर चुके हैं. लॉ एंड ऑर्डर के मुद्दे पर भी सरकार बैकफुट पर जा चुकी है. हालांकि, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और हरियाणा में कांग्रेस अभी थोड़ी मजबूत स्थिति में जरूर है लेकिन बहुत कुछ चुनाव का माहौल भी तय करता है.