Dantevada News: पूरे देश में गणेश चतुर्थी की धूम मची हुई है. जगह-जगह भगवान गणेश की प्रतिमा स्थापित की जा रही है. साथ ही सभी गणेश मंदिरों में भक्तों का तांता लगा हुआ है.वहीं छत्तीसगढ़ के बस्तर के दंडकारण्य क्षेत्र में 4 हजार फीट ऊंची पहाड़ी में भगवान गणेश की एक ऐसी दुर्लभ प्रतिमा है जिसके दर्शन पाने के लिए घने जंगलो से होकर लोग ऊंची पहाड़ की चढ़ाई करते हैं .कहा जाता है कि भगवान गणेश की यह प्रतिमा शांति का प्रतीक है.यहां आने वाले लोग भगवान गणेश के दर्शन कर सुख समृद्धि पाते हैं .यही वजह है कि गणेश चतुर्थी पर बड़ी संख्या में लोग ऊंची चोटी पहाड़ पर चढ़कर भगवान गणेश के दर्शन करते हैं.
प्रशासन ने किए सुरक्षा के इंतजाम
वहीं प्रशासन ने अब लगातार यहां बढ़ते पर्यटकों की संख्या को देखते हुए गाइड भी तैनात किया है .हालांकि पर्यटन स्थल के रूप में इसे विकसित नहीं किया गया है. लेकिन पूरी तरह से नैसर्गिक जंगलों से होकर ऊंची पहाड़ चढ़ने के बाद भगवान गणेश की दुर्लभ प्रतिमा तक पहुंचा जा सकता है. वही इस ढोलकाल पहाड़ से पुरानी किवदंती भी जुड़ी हुई है. कहा जाता है कि भगवान गणेश का परशुराम से इसी जगह पर युद्ध हुआ था और भगवान गणेश का एक दांत यही गिरा था.
इसी स्थान पर हुआ था भगवान गणेश और परशुराम का युद्ध
दरअसल छत्तीसगढ़ के बस्तर को शिव का धाम माना जाता है.11 वीं शताब्दी में छिंदक नागवंशी साम्राज्य के सभी राजा भगवान शिव के परम भक्त हुआ करते थे. और यही वजह है कि उन्होंने पूरे दक्षिण बस्तर में भगवान शिव .पार्वती और गणेश जी की सैकड़ों की संख्या में मंदिरे बनाई और यहां पत्थरो की दुर्लभ मूर्तियां स्थापित की जो केवल आपको बस्तर में ही देखने को मिलेगी. ये सभी मंदिरे और मूर्तिया आज भी प्रसिद्ध है. उनमें से ही दंतेवाड़ा जिले के ढोलकाल के पहाड़ियों में है भगवान गणेश की अद्भुत प्रतिमा . कहा जाता है कि यहां परशुराम और भगवान गणेश के बीच युद्ध हुआ था जिसमें गणेश जी का एक दांत टूट गया था इसके बाद ही गणपति बप्पा एकदंत कहलाए. ढोलकाल पहाड़ में स्थापित भगवान गणेश की दुर्लभ प्रतिमा के दर्शन के लिए दंतेवाड़ा शहर से लगभग 40 किलोमीटर की दूरी तय कर ढोलकाल पर्वत श्रृंखला तक पहुचा जा सकता है.
ढ़ोल की आकृति का है पर्वत
इस पर्वत की ढोल के समान आकृति होने की वजह से इसका नाम ढोलकाल पर्वत पड़ा. यहाँ करीब 4 हजार फीट की ऊंचाई पर भगवान गणेश की पत्थर की दुर्लभ प्रतिमा स्थापित है .यह मूर्ति भगवान गणेश की ललितासन मुद्रा में है .ऐसी दुर्लभ प्रतिमा बस्तर के अलावा और कहीं भी दिखाई नहीं देती है. भगवान गणेश की यह प्रतिमा आयुध रूप में विराजित है. बस्तर के जानकार हेमंत कश्यप बताते है कि ढोलकाल के प्रसिद्ध गणेश प्रतिमा पर एक पुरानी कहानी प्रचलित है .ढोलकाल शिखर पर भगवान गणेश और परशुराम का युद्ध हुआ था. जिसमें भगवान का एक दांत टूट गया था. इसके बाद ही भगवान गणेश एकदंत कहलाए इस घटना की याद में ही छिंदक नागवंशी राजाओं ने इस छत्तीसगढ़ की सबसे ऊंची पर्वत श्रृंखला पर भगवान गणेश की प्रतिमा स्थापित की. परशुराम के फरसे से भगवान गणेश का दांत टूटा था इसलिए पहाड़ के शिखर के नीचे ही गांव का नाम फरसपाल रखा गया है.
प्रतिमा के बाएं हाथ में है टूटा हुआ दांत
जानकार हेमंत कश्यप ने बताया कि ऐसी मान्यता है कि दक्षिण बस्तर के भोगा जनजाति आदिवासी परिवार अपनी उत्पत्ति ढोलकट्टा ढोलकाल की महिला पुजारी से मानते हैं. सबसे पहले इस ढोलकाल के पर्वत में चढ़कर भोगा जनजाति की महिला ने पूजा पाठ शुरू किया. सुबह सुबह इस महिला पुजारी के शंखनाद से पूरे ढोलकाल शिखर पर आवाज गूंजती थी और आज भी इस महिला के वंशज भगवान गणेश की पूजा अर्चना करते हैं. इस प्रतिमा की खास बात यह है कि भगवान गणेश के ऊपरी दाएं हाथ में फरसा. बाएं हाथ में टूटा हुआ एक दांत. नीचे दाएं हाथ में अभय मुद्रा में अक्षयमाला है और नीचे बांये हाथ में मोदक है.
पर्यटन स्थल के रूप में विकसित करने की मांग
बस्तर के एक और जानकार रुद्र नारायण पाणिग्राही बताते हैं कि इस प्रतिमा को दंतेवाड़ा क्षेत्र के रक्षक के रूप में पहाड़ी की चोटी पर 11वीं शताब्दी में छिंदक नागवंशी शासकों ने स्थापित किया था. गणेश जी के आयुध रूप में हाथ में फरसा इसकी पुष्टि करता है. यही वजह है कि इसे नागवंशी शासकों ने इतनी ऊंची पहाड़ी पर स्थापित किया था. बताया जाता है कि भगवान गणेश की प्रतिमा इंद्रावती नदी के तलहटी में पाए जाने वाले पत्थरों से बनी हैं. इसे 2 वर्ग मीटर क्षेत्र में पहाड़ी की चोटी पर स्थापित किया गया है.
4 हजार फीट ऊंची पहाड़ी पर विराजित है प्रतिमा
बैलाडीला पर्वत श्रृंखला की यह सबसे ऊंची चोटी है. इसकी बनावट और नक्कासी से पता चलता है कि 11वीं शताब्दी में भी इतनी उत्कृष्ट कलाकृति बनती थी. लगभग 4 हजार फीट ऊंची पहाड़ी पर यह प्रतिमा स्थापित है. खास बात यह भी है कि ढोलकाल पर्वत के ऊपर स्थापित प्रतिमा के ऊपर कोई गुंबद नहीं बनाया गया है. नैसर्गिक रूप से मौजूद पहाड़ी के ऊपर इस प्रतिमा को देखने के लिए करीब 4 घंटे तक ऊंची पहाड़ी की चोटी पर चढ़ाई करनी पड़ती है.आसपास के ग्रामीण ही पूजा अर्चना करते हैं .इस जगह को और विकसित करने की जरूरत है .वहीं राज्य सरकार और पर्यटन विभाग को भी ध्यान देना चाहिए ताकि दुर्लभ प्रतिमा को देखने के लिए प्रदेश ही नहीं बल्कि देश विदेश से भी बड़ी संख्या में यहां पर्यटक पहुंच सके.