Ambikapur News: नसबंदी के बाद भी एक महिला के गर्भवती होने और बेटी के जन्म देने को लेकर एक महिला ने कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था. मामले की सुनवाई करते हुए अम्बिकापुर सरगुजा की स्थाई लोक अदालत ने आरोपी पक्ष तत्कालीन खंड चिकित्सा अधिकारी, सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र वाड्रफनगर, मुख्य चिकित्सा और स्वास्थ्य अधिकारी के साथ  मेडिकल कॉलेज सह जिला अस्पताल पर 23 लाख रूपए का अर्थदंड लगाया है. न्यायालय ने आदेश में कहा है कि नसबंदी फेल होने पर पीड़िता शांति देवी ने बेटी को जन्म दिया है. जिससे महिला को बेटी के लालन, पालन, शिक्षा, चिकित्सा और विवाह सहित भविष्य की संभावित अन्य खर्च के मद में 20 लाख रूपए अदा करने आदेश दिया है. 


अदालत ने पीड़ित महिला के हक में फैसला सुनाते हुए कहा कि, 'शारीरिक, मानसिक पीड़ा होने पर तीन लाख रूपए की क्षतिपूर्ति 23 नवंबर 2021 से अदायगी दिनांक तक 6 प्रतिशत वार्षिक ब्याज की दर से अदा करना होगा. न्यायालय सूत्रों से मिली जानकारी के मुताबिक, वाड्रफनगर के ग्राम शारदापुर निवासी शांति देवी पति बुधन कुमार लहरे ने दो बेटी और एक बेटे के जन्म के बाद महिला नसबंदी परामर्शदाता अमल किशोर पटवा के सलाह पर नसबंदी करवाया. महिला ने इसके लिए परामर्श पर खंड चिकित्सा अधिकारी कार्यालय वाड्रफनगर में नसबंदी के लिए पंजीयन करवाया था. 24 दिसंबर 2019 को जिला अस्पताल ने अंबिकापुर ने नसबंदी करने के बाद स्वास्थ्य विभाग का प्रमाण पत्र जारी किया था. महिला ने संबंधित चिकित्सा विभागों के खिलाप परिवाद दायर करते हुए आरोप लगाया कि, नसबंदी के कुछ दिनों बाद वह गर्भवती हो गई. जांच के लिए जब वह स्वास्थ्य केंद्र पहुंची तो डॉक्टरों ने बताया कि गर्भस्थ शिशु को बाहर निकालने पर मां की मौत हो सकती है. 


क्षतिपूर्ति के रुप में पीड़िता ने मांगे थे 50 लाख


पीड़ित महिला के मुताबिक 12 अक्टूबर 2020 को उसने प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र मुरकौल वाड्रफनगर में एक बेटी को जन्म दिया. नसबंदी के बाद भी बेटी की पैदाइश को लेकर महिला ने स्थानीय लोक अदालत का दरवाजा खटखटाया, जहां उसने शारीरिक, मानसिक, आर्थिक परेशानी और भविष्य के खर्च को देखते हुए 50 लाख रूपए क्षतिपूर्ति की मांग करते हुए अदालत में वाद पेश किया. पीड़िता शांति देवी ने कोर्ट को बताया कि नसबंदी के कुछ दिनों बाद उसे गर्भवती होने का पता चला, तो वह तुरंत डॉक्टरों के पास गई. डॉक्टरों ने स्वास्थ्य परीक्षण के बाद बताया कि प्रसव पूर्व गर्भ से शिशु को बाहर निकालने से उसकी जान को खतरा हो सकता है, पीड़िता ने न चाहते हुए भी चौथी संतान को जन्म देना पड़ा.


केरल हाई कोर्ट के फैसले को बनाया गया नजीर


दोनों पक्षों की दलीलें सुनने के बाद स्थानीय लोक अदालत की अध्यक्ष उर्मिला गुप्ता और सदस्य संतोष कुमार ने फैसले में कहा कि, 'नसबंदी के लिए स्वास्थ्य विभाग की जिम्मेदारी सहमति पत्र में केवल शर्त लिख देने से पूरी नहीं हो जाती. इस तरह अपने दायित्वों से मुक्त नहीं हुआ जा सकता. अदालत ने स्वास्थ्य विभाग के सहमति पत्र के शर्तों को नियम विरूद्ध निर्देश बताते हुए कहा कि इस पत्र के तहत नसबंदी असफल होती है, तो आवेदिका न्यायालय से क्षतिपूर्ति नहीं ले सकती है. आवेदिका बंधनकारी नहीं है. ऐसी स्थिति में  ये प्रमाणित होता है कि स्वास्थ्य विभाग नसबंदी सेवा में असफल रही है, जिससे पीड़िता भविष्य में भी प्रभावित होगी. पीड़िता के मामले में अदालत ने 13 दिसंबर 2010 को स्टेट ऑफ केरला बनाम पीजी कुमारी अम्मा के में केरल हाई कोर्ट के फैसले को नजीर माना है. अदालत ने कहा कि कोर्ट ये मानती है कि नसबंदी फेल होने पर बेटी का जन्म हुआ है.


महिला के दावे पर स्वास्थ्य विभाग ने क्या कहा?


स्वास्थ्य विभाग ने महिला के दावों पर अदालत में बताया कि, स्वीकृति पत्र में ये स्पष्ट किया गया है कि नसबंदी के दो सप्ताह तक गर्भनिरोधक साधनों का उपयोग करना है. इसके लिए आवेदिका को गर्भनिरोधक का सामान उपलब्ध कराया गया था. मगर गर्भनिरोधक साधनों का इनके द्वारा उपयोग नहीं किया गया. कभी कभार नसबंदी असफल हो सकती है, जिसके लिए शासकीय अस्पताल या ऑपरेशन करने वालों को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है. स्वास्थ्य विभाग ने पीड़िता के आरोपों के खिलाफ बचाव में कहा कि आवेदिका ने सहमति पत्र में उल्लेखित शर्तों का पालन नहीं की जिससे वह क्षतिपूर्ति पाने का अधिकार नहीं रखती है.


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