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यह मंदिर कृष्ण भक्तों के लिए बहुत बड़ा आस्था का केंद्र है. गुजरात और महाराष्ट्र से बड़ी संख्या में वल्लभाचार्य के भक्त यहां दर्शन करते आते हैं. वल्लभाचार्य का तेलुगु ब्राह्मण परिवार में चंपारण्य के इसी स्थान पर जन्म हुआ था. उन्होंने वाराणसी में शिक्षा ली थी. वल्लभाचार्य ने अंतिम सांसें बनारस में ली. उन्होंने गुजरात और महाराष्ट्र में कई अनुयायी बनाए थे.
यहां नहीं काटे जाते हैं पेड़
ऐसा बताया जाता है कि महाप्रभु वल्लभाचार्य ने पूरे भारत की तीन बार पैदल यात्रा की थी. भागवत सप्ताह का पाठ भी किया था. जिसमें से दो जिस स्थान पर भागवत पाठ किया था, वह स्थान चंपारण्य में है इसलिए भी इस स्थान का काफी महत्व है. माना जाता है कि वल्लभाचार्य का जन्म जंगल के अंदर हुआ था इसलिए उस इलाके में पेड़ काटने पर भी मनाही है.
चंपारण्य से जुड़ी एक और मान्यता
इस मंदिर के अलावा चंपारण्य को लेकर लग तरह की मान्यताएं भी हैं. एक पौराणिक मान्यता के अनुसार यहां भगवान शिव की त्रिमूर्ति का अवतरण हुआ था. यहां एक ग्वाला अपनी गाय का दूध नहीं निकाल पाता था. वह इस बात से परेशान था कि आखिर गाय का दूध कहां जाता है और उसने गाय का एक दिन पीछा किया तो उसे पता चला कि गाय हर दिन चंपेश्वर नाथ में शिवलिंग पर दूध अर्पित कर देती है. यह जानकारी उसने फिर उस प्रदेश के राजा को बताई जिन्होंने आगे उस स्थान को विकसित किया.
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