Bastar News: छत्तीसगढ़ के बस्तर में 75 दिनों तक मनाई जाने वाली विश्व प्रसिद्ध बस्तर दशहरा पर्व में रथ परिक्रमा की आखिरी रस्म बाहर रैनी अदा की गई. इस रस्म में बस्तर के राजकुमार कमल चंद भंजदेव चोरी हुए रथ को ढूंढते हुए कुम्हड़ाकोट के जंगल पहुंचे और यहां नाराज ग्रामीणों को मनाकर और उनके साथ जमीन में बैठकर नवाखाई (नए फसल के चावल की खीर खाकर).
शाही अंदाज में चोरी हुए रथ को वापस राजमहल पहुंचाया. रथ परिक्रमा के इस आखिरी रस्म में हजारों की संख्या में आदिवासियों के साथ ही बस्तरवासी और दूसरे राज्यों से आये पर्यटक भी मौजूद रहे.
दरअसल बाहर रैनी की इस रस्म को करीब 600 सालों से बखूबी बस्तर के आदिवासियों के द्वारा निभाया जाता है. बस्तर के राजकुमार कमलचंद भंजदेव ने बताया कि सदियों पुरानी परंपरा के अनुसार बस्तर के महाराजा से माड़िया जनजाति के आदिवासी नाराज हो गए थे और राजा को अपने बीच बुलाने के लिए एक योजना बनाई.
विजयदशमी के दिन आधी रात को सैकड़ों माड़िया और गोंड जनजाति के आदिवासी ग्रामीणों ने रथ की चोरी कर राजमहल परिसर से करीब 3 किलोमीटर दूर कुम्हड़ाकोट के जंगल में छिपाया, जिसके बाद सुबह बस्तर महाराजा को इस बात की खबर लगी, तो बकायदा माड़िया जनजाति के ग्रामीणों ने उन्हें राजशाही के अंदाज में उनके बीच बुलाया और उनके साथ नवाखानी में शामिल होने को कहा.
बकायदा सभी ग्रामीणों के बीच नीचे जमीन में बैठकर उनके साथ में नये चावल से बने खीर को खाने को कहा. राजा ने ग्रामीणों के साथ नीचे उनके साथ में बैठकर नवाखाई खाया और जिसके बाद ग्रामीणों को मनाकर रथ को शाही अंदाज में वापस लाया था. बस्तर राजकुमार कमलचंद भंजदेव ने बताया कि आज भी इस परंपरा को बखूबी निभाई जाती है और वे खुद राज महल से अपने पूरे लाव लश्कर के साथ कुम्हड़ाकोट के जंगल पहुंचे और माड़िया जनजाति के ग्रामीणों के साथ बैठकर नवाखाई (नई फसल की चावल से बनी खीर ) खाई और 8 चक्कों की विशालकाय रथ को उन्हीं ग्रामीणों के द्वारा खींचकर मंदिर परिसर तक लाया गया.
लंब समय से चली आ रही है परंपरा
बस्तर राजकुमार कमलचंद भंजदेव ने बताया कि विजयदशमी के दूसरे दिन बाहर रैनी रस्म के दौरान नवाखाई की परंपरा निभाई जाती है और इस दिन बस्तर के पूरे गांव में नवाखाई त्यौहार मनाया जाता है. इसमें नए फसल के चावल और राज महल से लाई गई देसी गाय के दूध से खीर तैयार किया जाता है और इसे मां दंतेश्वरी को भोग लगाने के बाद बकायदा ग्रामीण और राजकुमार इसे ग्रहण करते हैं.
देवी देवताओं की डोली छतरी आगे चलती है और उसके बाद राजकुमार शाही अंदाज में डोली और छत्र के पीछे चलते हैं और उसके बाद रथ उनके पीछे चलता है और इस रथ में मां दंतेश्वरी के छत्र को विराजमान किया जाता है.
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