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Bastar News: इस जगह पर हुई थी परशुराम और भगवान गणेश के बीच युद्ध, जानिये बस्तर की इस खास प्रतिमा की कहानी

Chhattisgarh News: दंतेवाड़ा जिले के ढोलकाल के पहाड़ियों में भगवान गणेश की अद्भुत प्रतिमा है. कहा जाता है कि यहां परशुराम और भगवान गणेश के बीच युद्ध हुआ था.

Statue of Lord Ganesha: छत्तीसगढ़ (Chhattisgarh) के बस्तर (Bastar) को शिव का धाम माना जाता है. 11वीं शताब्दी में छिंदक नागवंशी साम्राज्य के सभी राजा भगवान शिव के परम भक्त हुआ करते थे. यही वजह है कि उन्होंने पूरे दक्षिण बस्तर में भगवान शिव, पार्वती और गणेश की सैकड़ों की संख्या में मंदिरे बनवायी और यहां पत्थरों की दुर्लभ मूर्तियां स्थापित की. यह केवल आपको बस्तर में ही देखने को मिलेगी. ये सभी मंदिरें और मूर्तियां आज भी प्रसिद्ध है. उनमें से ही दंतेवाड़ा जिले के ढोलकाल के पहाड़ियों में भगवान गणेश की अद्भुत प्रतिमा है. कहा जाता है कि यहां परशुराम और भगवान गणेश के बीच युद्ध हुआ था जिसमें गणेश जी का एक दांत टूट गया था इसके बाद ही गणपति बप्पा एकदंत कहलाये थे.

साढ़े 3 हजार फीट ऊंची पहाड़ी में स्थित हैं ढोलकाल गणेश

छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा जिले से लगभग 40 किलोमीटर की दूरी पर ढोलकाल पर्वत श्रृंखला मौजूद है. दरअसल ढोल के समान आकृति की वजह से इसका नाम ढोलकाल पर्वत पड़ा. यहां करीब 3500 फीट की ऊंचाई पर भगवान गणेश की पत्थर की दुर्लभ प्रतिमा स्थापित है. यह मूर्ति बप्पा की ललितासन मुद्रा में है. ऐसे दुर्लभ प्रतिमा बस्तर के अलावा और कहीं भी दिखाई नहीं देती.

भगवान गणेश की यह प्रतिमा आयुध रूप में विराजित है. बस्तर के जानकारों का मानना है कि ढोलकाल के प्रसिद्ध गणेश प्रतिमा पर एक पौराणिक कथा प्रचलित है. ढोलकाल शिखर पर भगवान गणेश और परशुराम का युद्ध हुआ था जिसमें भगवान का एक दांत टूट गया था. इसके बाद ही भगवान गणेश एकदंत कहलाये थे. इस घटना की याद में ही छिंदक नागवंशी राजाओं ने इस छत्तीसगढ़ की सबसे ऊंची पर्वत श्रृंखला पर भगवान गणेश की प्रतिमा स्थापित की. परशुराम के फरसे से भगवान गणेश का दांत टूटा था इसलिए पहाड़ के शिखर के नीचे ही गांव का नाम फरसपाल रखा गया.


Bastar News: इस जगह पर हुई थी परशुराम और भगवान गणेश के बीच युद्ध, जानिये बस्तर की इस खास प्रतिमा की कहानी

11वीं शताब्दी में छिंदक नागवंशी राजाओ ने स्थापित की थी 

ऐसी मान्यता है कि दक्षिण बस्तर के भोगा जनजाति आदिवासी परिवार अपनी उत्पत्ति ढोलकट्टा ढोलकाल की महिला पुजारी से मानाते हैं. सबसे पहले इस ढोलकाल के पर्वत में चढ़कर भोगा जनजाति की महिला ने पूजा पाठ शुरू किया. सुबह-सुबह इस महिला पुजारी के शंखनाद से पूरे ढोलकाल शिखर पर आवाज गूंजती थी और आज भी इस महिला के वंशज भगवान गणेश की पूजा अर्चना करते हैं. इस प्रतिमा की खास बात यह है कि भगवान गणेश के ऊपरी दाएं हाथ में फरसा, बाएं हाथ में टूटा हुआ एक दांत, नीचे दाएं हाथ में अभय मुद्रा में अक्षयमाला, और नीचे बांये हाथ में मोदक है. बस्तर के जानकार संजीव रुद्र नारायण पाणिग्राही बताते हैं कि इस प्रतिमा को दंतेवाड़ा क्षेत्र के रक्षक के रूप में पहाड़ी की चोटी पर 11वीं शताब्दी में छिंदक नागवंशी शासकों ने स्थापित किया था.

गणेश जी के आयुध रूप में हाथ में फरसा इसकी पुष्टि करता है. यही वजह है कि इसे नागवंशी शासकों ने इतनी ऊंची पहाड़ी पर स्थापित किया था. नागवंशी शासकों ने इस प्रतिमा का निर्माण करते समय गणेश जी की प्रतिमा पर नाग सांप को अंकित किया था. प्रतिमा अपना संतुलन बनाए रखे इसलिए  शिल्पकार ने जनेऊ में संकल का उपयोग किया था. भगवान गणेश की प्रतिमा इंद्रावती नदी के तलहटी में पाए जाने वाले पत्थरों से बनी है. इसे 2 वर्ग मीटर क्षेत्र में पहाड़ी की चोटी पर स्थापित किया गया.


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प्रतिमा के ऊपर कोई गुंबद नहीं बनाया गया है

बैलाडीला पर्वत श्रृंखला की यह सबसे ऊंची चोटी है. इसकी बनावट और नक्कासी से पता चलता है कि 11वीं शताब्दी में भी इतनी उत्कृष्ट कलाकृति बनती थी. लगभग 3500 फीट ऊंची पहाड़ी पर यह प्रतिमा स्थापित है. खास बात यह भी है कि ढोलकाल पर्वत के ऊपर स्थापित प्रतिमा के ऊपर कोई गुंबद नहीं बनाया गया है. नैसर्गिक रूप से मौजूद पहाड़ी के ऊपर इस प्रतिमा को देखने के लिए करीब 4 घंटे का तक ऊंची पहाड़ी की चोटी पर चढ़ाई करनी पड़ती है. छत्तीसगढ़ में सबसे ऊंची चोटी पर मौजूद गणेश की प्रतिमा को देखने दुर्गम पहाड़ों और नालों को पार कर पहुंचा जाता है.

यही वजह है कि यहां लोग कम ही आते हैं. यहां आसपास के ग्रामीण ही पूजा अर्चना करते हैं. इस जगह को और विकसित करने की जरूरत है. वहीं राज्य सरकार और पर्यटन विभाग को भी ध्यान देना चाहिए, ताकि दुर्लभ प्रतिमा को देखने के लिए प्रदेश ही नहीं बल्कि देश विदेश से भी बड़ी संख्या में यहां पर्यटक पहुंच सके.

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