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Chhattisgarh: बस्तर की प्रसिद्ध कौड़ी शिल्प कला विलुप्ति के कगार पर, आदिवासी कलाकारों में गहराया आर्थिक संकट

बस्तर में आदिवासियों द्वारा निर्मित काष्ठ कला, हस्तशिल्प कला, घड़वा कला और टेराकोटा कला पूरे विश्व में प्रसिद्ध है. देश के लाखों घरों की शोभा भी बढ़ा रही है.

Bastar Art News: छत्तीसगढ़ का बस्तर आदिवासी (Tribal) बाहुल क्षेत्र है. यहां  रहने वाले आदिवासी आज भी अपने रीति रिवाज, पुरानी परंपरा (Tradition) और कला, संस्कृति को बखूबी जीवंत रखे हुए हैं. खासकर यहां के आदिवासियों द्वारा प्रकृति से मिलने वाली वस्तुओं से तैयार की जाने वाली कलात्मक चीजें पूरे विश्व में प्रसिद्ध (World Famous) हैं. यहां के आदिवासियों की वेशभूषा भी सबसे अलग है. बस्तर संभाग के लगभग 40 प्रतिशत आदिवासी अपने हाथ के हुनर और कला से अपने परिवार का पालन पोषण कर रहे हैं. यही उनकी आय का भी मुख्य स्रोत है. लेकिन, सरकार की उदासीनता के चलते अब उनके सैकड़ों साल पुरानी परंपरा विलुप्त होने के कगार पर पहुंच रही है. 

पूरे विश्व में प्रसिद्ध है यहां की कला
दरअसल बस्तर में आदिवासियों द्वारा निर्मित काष्ठ कला, हस्तशिल्प कला, घड़वा कला और टेराकोटा कला पूरे विश्व में प्रसिद्ध है. देश के लाखों घरों की शोभा भी बढ़ा रही है. लेकिन, हस्तशिल्प कला के अंतर्गत कौड़ी शिल्प कला विलुप्ति के कगार पर पहुंच गई है. इसकी डिमांड घटने की वजह से अब इसके व्यापार में भारी गिरावट आई है. इस कला से जुड़े कलाकारों के घरों में आर्थिक संकट भी मंडरा रहा है, क्योंकि लंबे समय से पीढ़ी दर पीढ़ी आदिवासी इस कला से जुड़े हैं. ऐसे में इसे छोड़ना नहीं चाहते हैं. लेकिन, वर्तमान में घटती डिमांड की वजह से अब उनके सामने आर्थिक संकट आ गया है. 

कौड़ी शिल्पकला की खरीददारी 80 प्रतिशत घटी 
दरअसल एक समय में बस्तर में कौड़ी शिल्प कला की सबसे ज्यादा डिमांड थी. आदिवासियों के कपड़ों, आदिवासियों के प्रमुख माने जाने वाले सिरहा गुनिया के वस्त्रों और बायसन हार्न, गौड़, माढ़िया, मुकुट, चोली, घाघरा हो या छोटी बांस की टोकरी, इन सब पर कौड़ी लगाकर उसे सजाने की और आभूषण बनाने की परंपरागत कला को काफी सराहा जाता था.

इसकी जमकर बिक्री भी होती थी. देश दुनिया से आने वाले पर्यटक भी इस कौड़ी शिल्प कला की तारीफ करते हुए जरूर इसकी खरीदारी करते थे. वर्तमान समय में सरकार द्वारा इस कला को जीवित रखने और प्रोत्साहित नहीं करने के चलते अब कोई पूछने वाला नहीं है. बस्तर के मंडई मेला में सबसे ज्यादा कौड़ियों से बने आभूषण, सिरहा गुनिया के कपड़े, घाघरा और चोली बिकते थे. इस कला से पूरे बस्तर संभाग के सैकड़ों परिवार जुड़े हुए थे. 

फैंसी ड्रेस ने ले लिया स्थान
धीरे-धीरे फैंसी ड्रेसों ने सिरहा गुनिया की पूछ कम कर दी. इससे कौड़ी शिल्प कला की डिमांड घटती चली गई. ग्रामीण महिलाओं के द्वारा अलग-अलग तरह की आभूषण धारण करने से इसकी डिमांड घट गई. अब इससे जुड़े कलाकारों को भारी नुकसान उठाना पड़ रहा है. इस कला से जुड़े कलाकारों का कहना है कि कौड़ी शिल्प कला की लगातार डिमांड घटती जा रही हैं. सिरहा गुनिया के कपड़े भी अब मंडई मेला में नहीं बिक रहे हैं.

सिरहा गुनिया की पूछ कम होने से इसका असर कौड़ी शिल्प कला के व्यापार पर भी पड़ा है. पहले की तुलना में कौड़ी शिल्प कला की खरीददारी में 80 प्रतिशत की कमी आई है. कुछ अन्य कलाकारों का कहना है कि बस्तर के अंदरूनी गांवों में भी फैंसी ड्रेस की डिमांड बढ़ने लगी है. इस वजह से कौड़ी से लगी हुई घाघरा चोली और कौड़ी से सजावट की गई वस्तुएं अब पहले की तरह नहीं दिख रही है. उन्हें सरकार की ओर से इसे प्रदर्शित करने के लिए मंच भी नहीं दिया जा रहा है.

इसके चलते यह कला विलुप्ति के कगार पर पहुंच गई है. अगर सरकार इस कला पर विशेष ध्यान देती हैं तो एक बार फिर से बस्तर की कौड़ी शिल्प कला को पहचान मिल सकती है.

राज्य सरकार से कर रहे प्रमोट करने की मांग
बस्तर में आदिवासियों के प्रसिद्ध नृत्य गौड़  नाचा और अन्य नृत्यों में सबसे मुख्य आकर्षण का केंद्र सिर में पहने जाने वाला बायसन हॉर्न, माड़िया गौड़ के सींगों से बना मुकुट होता है. इस सिंग में सबसे मुख्य सफेद कौड़ी लगा झालर होता है, जो इस मुकुट में मुख्य आकर्षण का केंद्र होता है.

यह मुकुट छत्तीसगढ़ के आदिवासियों की पहचान है. लेकिन, सरकार की उदासीनता के चलते कौड़ी शिल्प कला को प्रमोट नहीं किया जा रहा है. इस कारण इससे जुड़े कलाकारों में उदासीनता है. उनके सामने आर्थिक संकट भी बढ़ गया है. कलाकार सरकार से इस कला को प्रोमोट करने की मांग कर रहे हैं. 

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