Chhattisgarh News: छत्तीसगढ़ का आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र बस्तर अपनी कला, संस्कृति और सैकड़ों साल पुरानी परंपरा के लिए पूरे विश्व में प्रसिद्ध है. बस्तर के आदिवासियों को प्रकृति का वरदान मिला है, यहां कई औषधीय गुणों से भरपूर पेड़ पौधे पाए जाते हैं. आदिवासी प्रकृति के उपासक होने की वजह से इन पेड़-पौधों, नदी, जंगल, पहाड़ को भी देवता मानकर इसकी पूजा पाठ करते हैं. उनका मानना है कि आदिवासियों के लिए प्रकृति की दी हुई उपहार ही उनके लिए देवता है.


वहीं प्रकृति के दिये अनगिनत वरदान में से एक है सल्फी का पेड़, जिसे बस्तर बियर के नाम से जाना जाता है. इस पेड़ के रस में औषधीय गुण पाए जाते हैं. इसका सेवन करने के साथ-साथ इसे आदिवासी अपनी परंपरा के तहत सबसे जरूरी हिस्सा मानते हैं.


यही वजह है कि आदिवासियों के घरों में जब भी विवाह कार्यक्रम होता  है, तो शगुन के तौर पर बारातियों को सल्फी का रस पिलाने की परंपरा है. वहीं जिस घर से बेटी विदाई होती है, उसे दहेज के रूप में सल्फी का पौधा दिया जाता है. बस्तर में यह परंपरा सैकड़ों सालों से निभाई जा रही है.


आदिवासी ग्रामीणों के लिए है आय का स्त्रोत


बस्तर के इतिहासकार और जानकार विनोद सिंह का कहना है कि सल्फी का पौधा और सल्फी  का पेड़ बस्तर के लिए विशेष महत्व रखता है. इसे इस तरह भी समझा जा सकता है कि अगर जिसके घर में औलाद ना हो, तो वह सल्फी का पौधा लगाते हैं. साथ ही उसकी पूजा पाठ कर बच्चे की तरह पालन पोषण करते हैं. पौधा से पेड़ बनने के बाद उस परिवार के लिए एक बेटे की तरह सल्फी का पेड़ आय का स्त्रोत हो जाता है.


इस तरह से हर महीने सल्फी का रस बेचकर महीने में 5 से 6 हजार रुपये की कमाई होती है. खास बात यह है कि घर की बेटियों की शादी की जाती है, तो दहेज में सल्फी का पौधा दिया जाता है. दरअसल सल्फी ताड़ प्रजाति का वृक्ष है, इसका वानस्पतिक नाम करियोटा युरेंस है.


इस पेड़ से 5 से 6 साल तक रस निकाला जा सकता है. ठंड के मौसम के साथ ही बस्तर के प्रसिद्ध देसी बियर सल्फी का मौसम भी आ जाता है. सल्फी के शौकीन इसके सेवन के लिए आदिवासी अंचलों में पहुंचने लगते हैं. इसके रस को हिलाने से बीयर की तरह झाग निकलता है.


दहेज में सल्फी का पौधा देने की है परंपरा


वहीं सल्फी वृक्ष के जानकार हेमंत कश्यप बताते हैं कि जब आदिवासी घरों में बेटियों की शादी आम बस्तरिया से की जाती है, तो दहेज में सल्फी का पौधा दिया जाता है. वही जिसके घर बेटी नहीं होती है, उसके बाद उस व्यक्ति के भांजे को वह सल्फी का पौधा देने की कुछ क्षेत्रों में परंपरा है. बकायदा आदिवासी घरों में शादी के दिन बारातियों के पहुंचने पर उन्हें शगुन के तौर पर सल्फी का रस पिलाया जाता है.


यहां तक की पूजा पाठ में भी देवी-देवताओं को सल्फी का रस चढ़ाया जाता हैच. साथ ही घर से बेटी जब विदा होती है, तो बकायदा घर के हर जरूरी सामान के साथ सल्फी का पौधा भी दहेज के तौर पर दिया जाता है. इसके पीछे आदिवासियों का मानना है कि सल्फी का पौधा बस्तर वासियों के लिए काफी शुभ माना जाता है.


बकायदा इस पौधे को बेटी अपने ससुराल के आंगन में लगाती है, इसकी देखभाल भी करती है. जब यह पौधा पेड़ बन जाता है तो उस घर में वह पेड़ आय का स्त्रोत भी होता है. एक बेटे की तरह हर महीने सल्फी के रस से उस घर में 5 से 6 हजार रुपये की आय होती है.


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