Bastar Politics: सर्व आदिवासी समाज के चुनावी मैदान में उतरने से किस पार्टी को पड़ेगा कितना फर्क, जानिए बस्तर का समीकरण
Chhattisgarh Politics News: छत्तीसगढ़ में कुछ महीने बाद विधानसभा चुनाव होने हैं. आइये ये समझते हैं कि, सर्व आदिवासी समाज के चुनावी मैदान में उतरने से किस पार्टी को कितना फर्क पड़ेगा.
Chhattisgarh Politics: छत्तीसगढ़ में विधानसभा चुनाव के लिए 11 महीने ही शेष रह गए हैं. जिसके चलते प्रदेश के अन्य संभाग समेत बस्तर में भी अब धीरे-धीरे चुनावी रंग चढ़ने लगा है. वर्तमान परिस्थिति को देखें तो बस्तर में इस विधानसभा चुनाव में बीजेपी कांग्रेस दोनों ही मुख्य दलों के लिए सर्व आदिवासी समाज एक बड़ी चुनौती साबित हो सकता है. हाल ही में हुए भानुप्रतापपुर उपचुनाव में सर्व आदिवासी समाज के प्रत्याशी को मिले वोट ने बीजेपी और कांग्रेस दोनों की ही चिंता बड़ा दी है.
हालांकि दोनों ही पार्टी के नेता अपनी-अपनी जीत का दावा जरूर कर रहे हैं. वहीं दोनों पार्टियों की ओर से ये कोशिश भी की जा रही है कि सर्व आदिवासी समाज अपना प्रत्याशी न खड़ा कर सके. इसके लिए बीजेपी और कांग्रेस दोनों पार्टियों की ओर से सर्व आदिवासी समाज के लोगों को अपनी पार्टी में शामिल कराने की जद्दोजहद चल रही है.
सर्व आदिवासी समाज करेगा चुनाव में प्रत्याशी उतारने की तैयारी
सर्व आदिवासी समाज के संरक्षक और पूर्व केंद्रीय मंत्री अरविंद नेताम का कहना है की चुनाव में लड़ना है या नहीं ये तो समाज बैठकर तय करेगा पर संभावना ज्यादा है कि आने वाले चुनाव में सर्व आदिवासी समाज अपनी मौजूदगी दिखाएगा. साथ ही अब समाज जागरूक हो गया है और जो आदिवासियों के हित के लिए बोलेगा वही बस्तर से विधानसभा में बैठेगा. वहीं आदिवासी नेता और बीजेपी के पूर्व विधायक लच्छुराम कश्यप का कहना है कि भानुप्रतापपुर उपचुनाव में सर्वादिवासी समाज के प्रत्याशी को हार का सामना करना पड़ा था.
आगे भी वो अगर चुनाव में खड़े होंगे तो निश्चित ही हारेंगे. इससे बीजेपी को कोई फर्क नही पड़ेगा. वहीं इन सबके इतर देखा जाए तो, कहीं ना कहीं भानुप्रतापपुर उपचुनाव में सर्व आदिवासी समाज के प्रत्याशी ने बीजेपी और कांग्रेस दोनों का ही मत प्रतिशत कम जरूर किया है.
सामाजिक काम में ध्यान दें समाज राजनीति में नहीं
वहीं कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और बस्तर के विधायक लखेश्वर बघेल का कहना है की समाज का काम समाजिक गतिविधियों के साथ समाज को आगे बढ़ाने का होता है. यदि समाज भी राजनीति में उतरेगा तो राजनीतिक दल क्या करेंगे. नेताओं को तो संन्यास ले लेना पड़ेगा. ऐसे में समाज अपना काम करे और राजनीतिक दलों के नेताओं को अपना काम करने दें. उन्होंने कहा कि भूपेश बघेल की सरकार ने बस्तर और आदिवासियों के लिए काफी काम किया है. ऐसे में समाज को कांग्रेस का समर्थन करते हुए विधानसभा चुनाव में अपने प्रत्याशी नहीं उतारने चाहिए.
दो गुटों में बंटा है सर्व आदिवासी समाज
इधर बस्तर में सर्व आदिवासी समाज भी दो गुटों में बंट गया है. जिसमें समाज का एक गुट चुनाव लड़ना चाहता है. वहीं दूसरा गुट चुनाव के खिलाफ है. प्रदेश सर्व आदिवासी समाज के प्रांतीय उपाध्यक्ष राजाराम तोड़ेम का कहना है की हम चुनाव नही लड़ना चाहते हैं, लेकिन दूसरा गुट अगर चुनाव में सर्व आदिवासी समाज के बैनर तले प्रत्याशी उतारता है, तो बस्तर की सभी सीटों पर फर्क तो पड़ेगा और कांग्रेस बीजेपी दोनों ही दलों को नुकसान भी होगा.
बस्तर में जीत से मिलती है सत्ता की चाबी
छत्तीसगढ़ में कहा जाता है की प्रदेश में सत्ता का रास्ता बस्तर से ही होकर जाता है. ऐसे में बस्तर में जिसके ज्यादा विधायक प्रदेश में उसकी सरकार बनती है. वर्तमान में बस्तर के 12 विधानसभा में कांग्रेस का कब्जा है. ऐसे में बीजेपी के लिए बस्तर में खोने के लिए तो कुछ नही है. वहीं दूसरी ओर उसके पाने के रास्ते में कांग्रेस के साथ अब सर्व आदिवासी समाज के प्रत्याशी भी बड़ी चुनौती रहेंगे. अगर 2023 विधानसभा चुनाव में सर्व आदिवासी समाज अपने प्रत्याशी उतारती है तो किसको कितना नुकसान होगा यह कहना जल्दबाजी होगी, लेकिन बस्तरवासियों के लिए बस्तर में एक और विकल्प जरूर मिल जाएगा.