Fagun Mela: छत्तीसगढ़ के इस जिले में विश्व प्रसिद्ध फागुन मेला की हुई शुरुआत, 10 दिन की अद्भुत रस्मों के बाद ऐसे होता है खत्म
Dantewada News: छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा जिले में मां दंतेश्वरी का आखेट नवरात्रि के नाम से चर्चित फागुन मेला विश्व प्रसिद्ध है. ये मेला अपनी अद्भुत रस्मों के साथ दस दिनों तक चलता है.
Chhattisgarh News: आपने शारदीय नवरात्रि (Navaratri) और चैत्र नवरात्रि (Chaitra Navratri) के बारे में सुना होगा. साल में दो बार मनाए जाने वाले नवरात्र को आम लोग देवी आराधना का पर्व मानते हैं. लेकिन छत्तीसगढ़ (Chhattisgarh) के दंतेवाड़ा (Dantewada) जिले में मां दंतेश्वरी (Maa Danteshwari) का आखेट नवरात्रि के नाम से चर्चित फागुन मेला (Fagun Mela) विश्व प्रसिद्ध है.
करीब 10 दिनों तक चलने वाले इस फागुन मेले में मां दुर्गा के नौ रूपों की पूजा के साथ नौ दिन तक माता की पालकी निकाली जाती है. फागुन मेला में निभाई जाने वाली रस्में केवल दंतेवाड़ा में ही देखने को मिलती है. खास बात यह है कि इस मेले में 700 से ज्यादा गांव के देवी देवता शामिल होते हैं.
कहां है ये शक्तिपीठ
छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा में फागुन मेला का आगाज हो चुका है. इस साल नौ मार्च से 19 मार्च तक मनाए जाने वाले फागुन मेले में हजारों की संख्या में श्रद्धालु पहुंचे हुए हैं. इसके साथ ही इस पर्व में निभाई जाने वाले अद्भुत रस्मों की शुरुआत भी हो चुकी हैं.
यहां के पुजारियों का कहना है कि दंतेवाड़ा में शंकनी डंकनी नदियों के संगम स्थल पर विराजित मा दंतेश्वरी देवी का प्रसिद्ध ऐतिहासिक और पुरातात्विक प्राचीन शक्तिपीठ है. इसी आदिशक्ति की छत्रछाया में फागुन मेला का आयोजन होता है.
कितने दिनों तक चलता है मेला
मेले के साथ ही यहां का जनजीवन मड़ई में बंधकर संगम पर जमा होता है. फागुन मेले की शुरुआत बसंत पंचमी के दिन मंदिर के परिसर में त्रिशूल स्तंभ गाड़कर और माईजी के छत पर आम बौर चढ़ाकर की जाती है.
फागुन मास के अंतिम 10 दिनों में आयोजित होने वाले इस मेले में आदिवासी समाज के पारंपरिक देव भक्ति, आदिवासी संस्कृति, लोक नृत्य का यह उत्सव अपने चरम पर होता है.
मेंडका डोबरा मैदान में मां दंतेश्वरी की कलश स्थापना के साथ इस उत्सव का शुभारंभ होता है. इसमें बस्तर संभाग और उड़ीसा के नवरंगपुर जिले के सभी देवी देवताओं को आमंत्रित कर सहभागी बनाया जाता है.
क्या हैं खास रस्में
विश्व प्रसिद्ध फागुन मेले में पहले दिन मड़ई स्थल पर कलश स्थापना की जाती है. इसके बाद दूसरे दिन ताड़ फलंगा धुवानी विधान संपन्न किया जाता है. इसका मतलब यह है कि ताड़ वृक्ष के पत्तों को धोना होता है. ताड़ के इन पत्तों को माता तरई में धोकर होलिका दहन के लिए सुरक्षित रखा जाता है.
इस बीच माईजी की पालकी हर दिन शाम मंदिर से नारायण मंदिर के लिए निकाली जाती है, फिर दोबारा मंदिर वापस लाई जाती है. इसी बीच कई तरह के कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं.
इस फागुन मेले के तीसरे दिन खोर कुंदनी और चौथे दिन नाच मांडनी पर मांदर, नगाड़े की थाप पर मंदिर के सेवादार, पुजारी और अन्य लोग मां दंतेश्वरी के सम्मुख नृत्य करते हैं.
क्या है मान्यता
आदिम संस्कृति के मेल मिलाप हंसी ठिठोली और उल्लास का वातावरण पूरे उत्सव के दौरान अपने चरम पर रहता है. आखेट नाच के अलावा आंवरामार का भी आयोजन किया जाता है. इस दिन माई की पालकी पर आंवले का फल चढ़ाया जाता है.
मड़ई देखने आए जनसमूह और पुजारी, सेवादार बारह लंकवार आदि दो समूहों में अलग होकर एक दूसरे पर इसी आंवले से प्रहार करते हैं. ऐसी मान्यता है कि आवरामार रस्म के दौरान प्रसाद स्वरूप चढ़े फल की मार यदि किसी के शरीर पर पड़ती है तो सालभर वो निरोगी रहता है.
क्या होता है मेले के आखिरी दिन
इस फागुन मेले के अंतिम चरण में चौथे दिन रंग भंग उत्सव मना कर सभी आमंत्रित देवी देवताओं का पादुका पूजन किया जाता है. गंवरमार के दूसरे दिन मड़ई का उत्सव होता है. इसमें पुजारी द्वारा दोनों हाथों में माईजी के छत्र को थामे हुए कुर्सी से बने पालकी में बैठाया जाता है. साथ ही सारे शहर का भ्रमण कराया जाता है.
इसके अलावा चीतलमार नृत्य भी फागुन मेले में काफी चर्चित है. इसे देखने के लिए दूर-दूर से पर्यटक आते हैं. इसके अलावा डंडार नृत्य और विभिन्न भेष लेकर किए जाने वाले नृत्य भी होते हैं और स्थानीय कलाकृतियां और फूड आइटम्स की दुकानें भी आकर्षण का केंद्र होती है.
मेले के 10 वें दिन देवी की सति की याद में होलिका दहन होता है और फिर होली के दूसरे दिन लोग एक दूसरे पर मिट्टी फेंककर एक तरह की होली मनाते हैं और इस त्यौहार का समापन होता है.
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