Bastar News: छत्तीसगढ़ के कोंडागांव (Kondagaon) जिले को शिल्प नगरी कहा जाता है, क्योंकि यहां हस्तशिल्प कला के साथ ही आदिवासी कल्चर में उपयोग किए जाने वाले वाद्य यंत्र भी बनाए जाते हैं और यहां बड़ी संख्या में शिल्पकार मौजूद हैं जिनके द्वारा एक से बढ़कर एक कलाकृति तैयार की जाती है. उनकी इस कला की छत्तीसगढ़ ही नहीं बल्कि देश की राजधानी दिल्ली में भी काफी डिमांड है. हालांकि कोविड काल के बाद बस्तर के आदिवासियों ने वाद्य यंत्र बनाना छोड़ दिया था, लेकिन एक बार फिर से विलुप्त हो रहे आदिवासी वाद्य यंत्रों को पुनर्जीवित करने की कोशिश की जा रही है और आदिवासी कलाकारों द्वारा युवाओं को वाद्य यंत्र बनाने की प्रशिक्षण भी दिया जा रहा है.
जानकारी के मुताबिक बस्तर में 12 प्रकार के वाद्य यंत्र बनाये जाते हैं. खासकर आदिवासी लक्ष्मी जगार और ग्रामीण अंचलों में होने वाले मंडई मेले, शादी-ब्याह और पूजा पाठ में इन वाद्ययंत्रों का प्रयोग किया जाता है. आदिवासियों के द्वारा तैयार इन वाद्ययंत्रों को छत्तीसगढ़ के साथ ही देश के सभी बड़े राज्य और देश की राजधानी दिल्ली में भी अच्छा रिस्पांस मिल रहा है और इसकी डिमांड भी बढ़ रही है.
करीब 60 लोगों को किया जा रहा प्रशिक्षित
कोंडागांव के कलेक्टर दीपक सोनी ने बताया कि छत्तीसगढ़ की शिल्प नगरी कोंडागांव में आदिवासी द्वारा तैयार किये जाने वाले वाद्ययंत्रों को फिर से पुनर्जीवित करने की कोशिश प्रशासन के द्वारा की जा रही है, इसके लिए 60 से अधिक लोगों को 12 प्रकार के आदिवासी वाद्य यंत्रों के निर्माण के लिए प्रशिक्षण दिया जा रहा है...15 दिन के इस प्रशिक्षण शिविर में बाकायदा कोंडागांव और नारायणपुर के युवाओं को और जिन्होंने वाद्य यंत्र बनाने का काम छोड़ दिया है उन कलाकारों को भी इसे तैयार करने के लिए प्रशिक्षण दिया जा रहा है.
क्या है इन वाद्ययंत्रों की खासियत
इधर हस्तशिल्प बोर्ड के प्रबंधक अनिरुद्ध कोचे ने बताया कि आदिवासियों द्वारा देवी देवताओं की पूजा त्योहार और विशेष अवसरों पर पारंपरिक वाद्य यंत्र का प्रयोग किया जाता है, जिसका अलग ही महत्व होता है. बस्तर और छत्तीसगढ़ के साथ-साथ दिल्ली की प्रदर्शनियों में भी इन वाद्ययंत्रों की प्रदर्शनी लगाई जाती है जिनकी काफी डिमांड भी होती है. आदिवासियों द्वारा तैयार किए जाने वाली इन वाद्ययंत्रों की खासियत ये है कि इस तरह के वाद्ययंत्र केवल बस्तर में ही तैयार किए जाते हैं.
12 प्रकार के इन वाद्ययंत्रों में ढोल, खूंट मांदर, माटी मांदर, ढपरा, तुड़बुड़ी, निशान, ढुडरा, कोटोड़का, तोड़ी, तुरई, घाटी, कौड़ी और मयूर जाल शामिल हैं. किबई और बालेंगा गांव के ट्रेनर नेतूराम, संतूराम मरावी और मानकूराम नेताम द्वारा इन्हें बनाने का प्रशिक्षण दिया जा रहा है. हस्तशिल्प बोर्ड के प्रबंधक अनिरुद्ध कोचे का कहना है कि बस्तर के इन पारंपरिक वाद्ययंत्रों को विलुप्त होने से बचाने के लिए प्रशासन द्वारा युवाओं को इन्हें बनाने का प्रशिक्षण दिया जा रहा है.
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