Mahamaya Temple Ambikapur: सरगुजा अंचल में कई सारे धार्मिक पर्यटन स्थल है उन्हीं में से एक है अम्बिकापुर में स्थित महामाया मंदिर, इसी मंदिर के नाम से अम्बिकापुर का नाम पड़ा है. अम्बिकापुर, महामाया या अंबिका देवी के सम्मान में सरगुजा जिला मुख्यालय को दिया गया नाम था. कहा जाता है कि महामाया देवी का धड़ अम्बिकापुर के महामाया मंदिर में स्थित है. उनका सिर बिलासपुर जिले के रतनपुर महामाया मंदिर में रखा गया है. इस मंदिर का निर्माण महाराजा रघुनाथ शरण सिंहदेव ने करवाया था. इस मंदिर में चैत्र और शारदीय नवरात्रों के दौरान हजारों भक्त प्रार्थना करने आते हैं.


लोगों का अटूट विश्वास
सरगुजा के निवासियों के लिए महामाया मंदिर एक महत्वपूर्ण धार्मिक केंद्र है. यहां नवरात्रि के दौरान हजारों की संख्या में घी और तेल के दीपक जलाए जाते हैं. भक्तों की मनोकामना पूर्ण होने पर वे झंडा लगाने आते हैं. मां सभी की मनोकामना पूर्ण करती है और सच्चे मन से प्रार्थना करने पर झोली को खुशी से भर देती है. अम्बिकापुर निवासी प्रत्येक कार्य की शुरुआत माता के चरणों में सिर झुकाकर करते हैं.




रतनपुर में है मां महामाया का सिर
महामाया मां मंदिर के बीच में एक चौकोर कमरे में विराजमान हैं, जो एक ऊंचे चबूतरे पर बनी है जिसके चारों ओर सीढ़ियां हैं. इसके साथ ही मां विंध्यवासिनी की काली मूर्ति भी स्थापित की गई है. यज्ञ शाला के चारों ओर एक स्तंभयुक्त मंडप है जो उसके सामने है. मां महामाया और मां समलाया से जुड़ी मान्यता बेहद ही रोचक है. जानकार बताते हैं, मराठा यहां से मूर्ति ले जाने का प्रयास कर रहे थे, लेकिन वह मूर्ति उठा नहीं पाए और माता की मूर्ति का सिर उनके साथ चला गया. माता का सिर बिलासपुर के पास रतनपुर में मराठों ने रख दी, तभी से रतनपुर की मां महामाया की महिमा भी विख्यात है माना जाता है कि रतनपुर और अम्बिकापुर में मां महामाया के दर्शन बिना पूजा अधूरी मानी जाती है.


एक साथ थी मां महामाया – समलाया
जिस प्रतिमा को मां महामाया के नाम से लोग पूजते हैं, दरअसल पहले इनका नाम समलाया था. महामाया मंदिर में ही दो मूर्तियां स्थापित थी. पहले महामाया को बड़ी समलाया कहा जाता था और समलाया मंदिर में विराजी मां समलाया को छोटी समलाया कहते थे. बाद में जब समलाया मंदिर में छोटी समलाया को स्थापित किया गया, तब बड़ी समलाया को महामाया कहा जाने लगा. तभी से अम्बिकापुर के नवागढ़ में विराजी मां महामाया और मोवीनपुर में विराजी मां समलाया की पूजा लोग इन रूपों में कर रहे हैं.




सरगुजा में थी कई मूर्तियां
बताया जाता है कि पहले सरगुजा के वनांचल में अपार मूर्तियां यहां-वहां बिखरी हुई थी और जब सिंहदेव राजपरिवार यहां आया तभी मूर्तियों को वापस संग्रहित कर पूजा पाठ शुरू किया गया. इसके बाद से ही आसपास के क्षेत्रों में यहां से मूर्तियां ले जाई गई. श्रद्धा-आस्था और विश्वास के बीच मान्यताओं का अहम योगदान रहा है. ऐसी ही कुछ मान्यता है अम्बिकापुर की महामाया की, जिस वजह से यहां निवास करने वाला हर इंसान अपने शुभ कार्य की पहली अर्जी महामाया के सामने ही लगाता है.


राजपरिवार के लोग ही गर्भगृह में कर सकते है प्रवेश
अम्बिकापुर में स्थित महामाया मंदिर मे नवरात्र में भक्तों की लंबी लाइन लगी रहती है. मां महामाया सरगुजा राजपरिवार की कुलदेवी है. मंत्री टीएस सिंहदेव मंदिर में विशेष पूजा करते हैं और उनके परिवार के लोग ही मां महामाया और समलाया के गर्भ गृह में प्रवेश कर सकते हैं. मान्यता है कि यह मूर्ति बहुत पुरानी है. सरगुजा राजपरिवार के जानकारों के अनुसार रियासत काल से राजा इन्हें अपनी कुलदेवी के रूप में पूजते आ रहे हैं.


हर वर्ष नवरात्र में राजपरिवार का कुम्हार बनाता है मां का सिर
मां महामाया की मूर्ति छिन्नमस्तिका होने के कारण हर वर्ष नवरात्र में राजपरिवार के कुम्हारों के द्वारा माता के सिर का निर्माण मिट्टी से किया जाता है. इसी आस्था की वजह से सरगुजा में एक जस गीत बेहद प्रसिद्ध है. गीत के बोल हैं, 'सरगुजा में धड़ है तेरा हृदय हमने पाया, मुंड रतनपुर में मां सोहे कैसी तेरी माया'. मां के जस गीतों में सरगुजा में एक यह भी गीत प्रसिद्ध है. यह भजन सरगुजा में विराजी मां महामाया मंदिर की पूरी महिमा का बखान करते हुए लिखा गया है.


क्या कहते है जानकार
सरगुजा राजपरिवार और इतिहास के जानकार गोविंद शर्मा बताते हैं कि मां महामाया मंदिर का निर्माण सन 1910 में कराया गया था. इससे पहले एक चबूतरे पर मां स्थापित थी और राज परिवार के लोग जब पूजा करने जाते थे तो वहां बाघ बैठा रहता था. सैनिक जब बाघ को हटाते थे तब जाकर मां के दर्शन हो पाते थे.