दंतेवाड़ा: आपने बहुत से मंदिरों को देखा होगा, बहुत से मंदिरों के बारे में सुना होगा,लेकिन आज हम आपको एक ऐसे मंदिर की जानकारी देने जा रहे हैं जो पूरी दुनिया में अकेला, उसके जैसा कोई और मंदिर नहीं है. हम बात कर रहे हैं छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा जिले के बारसूर गांव में स्थित मामा-भांजा के नाम के मंदिर की. इस मंदिर के नाम के पीछे एक रोचक कहानी है. दरअसल 11वीं शताब्दी में छिंदक नागवंशी साम्राज्य के तात्कालिक राजा बाणासुर ने मंदिर को बनवाया था. मामा भांजा शिल्पकार  ने मिलकर इस मंदिर को बनाया था. इस मंदिर की सबसे खास और महत्वपूर्ण बात यह है कि इसे एक ही दिन में शिल्पकारों ने तैयार कर लिया था.


एक ही दिन में बना दिया भव्य मंदिर


इतिहासकार हेमंत कश्यप ने बताया कि बारसूर स्थित मामा-भांजा मंदिर काफी सुंदर और अद्भुत है. इस मंदिर को बनाने के लिए विशेष प्रकार के बलुई पत्थरों का उपयोग किया गया है. यह मंदिर काफी ऊंचा है. इसकी दीवारों पर शैल चित्रो उकेरे गए हैं.यह उस समय की अद्भुत कलाकारी को दर्शाता है. इस मंदिर के शीर्ष के थोड़े नीचे अगल-बगल में दो शिल्पकार मामा और भांजा की मूर्तियां हैं. मंदिर के गर्भ गृह में भगवान शिव,गणेश और नरसिंह की प्रतिमा है.


हेमंत कश्यप ने बताया कि यह मंदिर मुख्य रूप से शिव और गणेश का मंदिर है. वो बताते हैं कि इस मंदिर के नामकरण के पीछे अजब-गजब कहानी जुड़ी हुई है. उन्होंने बताया कि राजा बाणासुर परम शिव भक्त हुआ करते थे. शिव के प्रति अपनी सच्ची आस्था स्वरूप और भगवान को प्रसन्न करने व लोक कल्याण के लिए एक नायाब शिव मंदिर निर्माण करवाने का सपना उन्होंने देखा. इस मंदिर का निर्माण केवल एक दिन में होना था, ताकि राजा की यश कीर्ति चारों दिशा में फैले. उनके कुल का नाम हो. इस इच्छा को पूरा करने के लिए उन्होंने अपने राज्य के दो प्रसिद्ध शिल्पकारों को बुलाया.कहा जाता है कि ये शिल्पकार कोई आम नागरिक नहीं थे,वे देवलोक से भेजे गए कोई देव या यक्ष गंधर्व थे. कुछ लोग तो दोनों को देव शिल्पी विश्वकर्मा के वंशज बताते हैं. लेकिन इनका साक्ष्य नहीं है.


शिल्पकारों पर पड़ा मंदिर का नाम 


राजा ने आदेश दिया कि एक ही दिन में शिव मंदिर का निर्माण किया जाए. इस आदेश पर उन दोनों शिल्पकारों ने अपनी ऐसी कारीगरी दिखाई जो आज के समय में किसी सपने से कम नहीं है.उन दोनों ने महज एक ही दिन में भव्य मंदिर का निर्माण कर दिया. यह काम उस समय के लिए किसी चमत्कार से कम नहीं रहा होगा. उस समय कोई आज की तरह साधन नहीं थे. सोचने वाली बात यह है कि उन लोगों ने कैसे इतनी मोटी-मोटी चट्टानों को इतनी ऊंचाई पर पहुंचाया होगा. कैसे चट्टानों  को खोदकर नक्कासी किया होगा और कैसे पत्थरों को जोड़कर भव्य और ऊंचा मंदिर बनाया होगा.

 


मंदिर का निर्माण पूरा होने के बाद राजा ने इस मंदिर में शिवलिंग व गणेश की प्रतिमा की स्थापना की. इसके बाद राजा ने उन शिल्पकारों को बुलाकर उनका आभार व्यक्त किया और उनका मेहनताना दिया. राजा ने उनके काम से खुश होकर कहा कि आज से तुम दोनों मामा-भांजा के नाम से इस मंदिर को जाना जाएगा. उसके बाद से ही उस मंदिर को मामा-जा मंदिर के नाम से जाना जाने लगा. 


मामा-भांजा एक साथ नहीं कर सकते हैं दर्शन 


इस मंदिर के पीछे एक और किवदंती जुड़ी हुई है. वह यह है कि इस मंदिर में मामा भांजा  एक साथ प्रवेश नहीं कर सकते,क्योंकि कहा जाता है कि अगर मामा भांजा एक साथ इस मंदिर में दर्शन करेंगे तो उनमें मतभेद होगा. उनके रिश्तों में खटास आएगी. इतिहासकारों और आसपास के ग्रामीणों का मानना है कि इस मंदिर में छत्तीसगढ़वासी इस नियम को मानकर मामा-भांजा एक साथ मंदिर में दर्शन के लिए नहीं जाते हैं. 


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