Dantewada News: छत्तीसगढ़ के इस जिले में होती है 'व्हेल मछली' की पूजा, क्यों हैं ग्रामीणों की ऐसी आस्था? जानें- यहां
Chhattisgarh: छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा जिले के गीदम में भी यहां के आदिवासी पाषाण खण्ड (पत्थर )की पूजा करते आ रहे हैं, जिसकी आकृति हूबहू समुद्र में पाए जाने वाले विशाल व्हेल मछली की तरह ही है.
Chhattisgarh News: छत्तीसगढ़ के आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र बस्तर में आदिवासी समाज प्रकृति के उपासक हैं. आदिवासी जनजातियां अपनी प्राचीन परंपराओं को आज भी इस आधुनिक तकनीकी विकास और सांस्कृतिक के युग में कायम रखे हुए है. आदिवासी आदिम संस्कृति में हर उस चीज की पूजा करते हैं जो आजीविका से जुड़ी होती है. यही नहीं प्राकृतिक रूप से जो भी उन्हें प्राप्त होता है उसका वे सम्मान करते हैं. वन और पर्यावरण संरक्षण को लेकर इनमें सबसे ज्यादा जागरूकता होती है. यही वजह है कि जहां आदिवासी निवास करते हैं वहां वन जीवित है. आदिवासी ग्रामीणों की पूजा करने के साथ-साथ पुरातात्विक महत्व को अपनाते हुए शिलालेख और पत्थरों की भी पूजा करते आ रहे हैं.
छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा जिले के गीदम में भी यहां के आदिवासी पाषाण खण्ड (पत्थर )की पूजा करते आ रहे हैं, जिसकी आकृति हूबहू समुद्र में पाए जाने वाले विशाल व्हेल मछली की तरह ही है. लगभग 20 फुट लंबे व्हेल मछली के आकार में दिखने वाले इस पत्थर की आदिवासी पूजा करते हैं. साथ ही हर साल यहां मेला लगता है. दरअसल, गीदम के शीतला माता मंदिर में हर साल अगहन पाठजात्रा मेला का आयोजन होता है. यहां काफी संख्या में श्रद्धालुगण पहुंचते हैं. इस मेले में पहुंचने वाले श्रद्धालुगण पूरी श्रद्धा के साथ इस पाषाण खंड की व्हेल मछली की तरह दिखने वाली पत्थर की भी पूजा करते हैं. वहीं इसी के बगल में मौजूद एक विशाल शिवलिंग भी है, जिसके कारण यह आस्था का स्थल बन गया है.
कई सालों से करते आ रहे हैं पाषाण खंड की पूजा
दंतेवाड़ा जिले के गीदम में मौजूद शीतला माता मंदिर के व्यवस्थापक अभिमन्यु सोनी और हारम गांव के पूर्व उपसरपंच अनिल बताते हैं कि कई सालों से इस विशाल पाषाण खंड की आकृति जो हूबहू समुद्र में पाई जाने वाली व्हेल मछली की तरह दिखती है ग्रामीण इसकी पूजा करते हैं. दरअसल, व्हेल मछली सबसे बड़ी मछली है, जिसका आकार हाथी से भी बड़ा होता है. इस मछली के स्वरूप को पत्थर में देखते हुए ग्रामीण इसे आस्था का केंद्र बनाए हुए हैं और भगवान शिव के साथ-साथ इस पत्थर रूपी देवता की भी ग्रामीण पूजा करते हैं.
प्रकृति के उपासक होते हैं आदिवासी
गौरतलब है कि बस्तर में आदिवासी देवताओं के साथ ही जल जंगल जमीन की भी पूजा करते आ रहे हैं. वहीं पुरानी शिलालेख और प्राकृतिक स्वरूप के साथ भी वे छेड़छाड़ के विरोधी होते हैं. दंतेवाड़ा के गीदम में इसका सबसे बड़ा उदाहरण देखने को मिलता है. यहां कई साल पहले नदी के किनारे मिले मछली के स्वरूप में पाषाण खंड (पत्थर )को भी मंदिर के समक्ष स्थापित कर उसकी पूजा की जा रही है और बकायदा हर साल यहां मेला लगता है. इसमें हजारों गांव के ग्रामीण पहुंचकर इस व्हेल मछली की तरह दिखने वाले पत्थर की पूजा-अर्चना करते हैं और इससे ग्रामीणों की काफी गहरी आस्था भी जुड़ी हुई है.