(Source: ECI/ABP News/ABP Majha)
Chhattisgarh News: प्लास्टिक की वस्तुओं के प्रचलन ने बांस के कारीगरों से छीना रोजगार, बंसोड़ जनजाति की बढ़ी मुसीबत
Chhattisgarh News: बांस के बेहतरीन हस्तशिल्प के लिए बंसोड़ जनजाति की विशेष पहचान है. बांस से बनने वाला सूप, पेटी, टोपी, चबा सटाई, गिलास, थाली इनके बेहतरीन कारीगिरी देखी जा सकती है.
Jashpur News: छत्तीसगढ़ के जशपुर जिले में बंसोड़ जनजाति बहुत ही कम संख्या में पाए जाते है. जिले के मनोरा तहसील के घाघरा और जशपुर तहसील के तुरिलोदाम, झोलंगा समेत कुछ अन्य जगह में यह जनजाति निवास करती है. बता दें कि, तेजी से बढ़ते प्लास्टिक वस्तुओं के प्रचलन ने बांस के इन कारीगरों के सामने रोजगार की समस्या उत्पन्न कर रखी है. फिलहाल, जिले में बांस की कमी ने इस जनजाति के लिए दोहरी मुसीबत साबित हो रही है.
बांस के लिए जनजाति के लोग पड़ोसी राज्य झारखंड पर आश्रित है. अपने पारंपरिक पेशे को बचाए रखने के लिए इस जनजाति के लोग बांस प्राप्त करने के लिए कई किलोमीटर की पदयात्रा कर रहे हैं. वहीं वन विभाग जिले की जलवायु को बांस उत्पादन के लिए अनुपयुक्त बता रहा है. राजीव गांधी बांस मिशन जिले में सफल नहीं हो सकी है. जिससे बंसोड़ जाति को सस्ते दर में बांस उपलब्ध कराने की सरकारी योजना का लाभ नहीं मिल पा रहा है.
प्लास्टिक ने किया बेरोजगार
दरअसल, प्लास्टिक समान का बढ़ता प्रचलन ने बंसोड़ जनजाति के सामने रोजी-रोटी की समस्या उत्पन्न कर दी है. घाघरा निवासी 60 वर्षीय कालू राम ने बताया कि पेटी, थाली, गिलास जैसी वस्तुओं की मांग पूरी तरह से खत्म हो चुकी है. ले देकर सूप, दौली जैसे कुछ एक वस्तुओं को साप्ताहिक बाजार के साथ आसपास के गांवों में बेचकर किसी तरह परिवार का पेट पाल रहे हैं. शिक्षा के अभाव में मजदूरी के ही इस जनजाति के सामने दूसरा कोई विकल्प नहीं है. सनियारो बाई ने बताया कि दिन भर गांव-गांव घूम कर खाक छानने पर 50 से 100 रुपये से अधिक की आमदनी नहीं हो पाती. इस आय में दो समय की रोटी का जुगाड़ करना ही मुश्किल हो जाता है. आर्थिक बदहाली की मार झेल रहे बंसोड़ों परिवार पूरी तरह सरकारी योजना के तहत मिलने वाली सहायता पर आश्रित हो चुके हैं.
बांस के बेहतरीन हस्तशिल्प
गौरतलब है कि, बांस के बेहतरीन हस्तशिल्प के लिए बंसोड़ जनजाति की विशेष पहचान है. बांस से बनने वाला सूप, पेटी, टोपी, चबा सटाई, गिलास, थाली इनके बेहतरीन कारीगिरी देखी जा सकती है. बांस की कारीगरी इस जनजाति की पारंपरिक व्यवसाय है. बांस की अनोखी कलाकारी जनजाति के लोगों को विरासत में मिलती है. जनजाति के लोग इस कला में बचपन में खेल-खेल में महारत हासिल कर लेते हैं. बांस की इस कला ही इस जनजाति की जमा पूंजी है. तेज धार वाली छूरी और लकड़ी से निर्मित सोंटासी अनोखी बांस कला का अहम औजार है. छुरी का प्रयोग बास को छीलने में और सोटांसी का बांस की परतों को बारीक करने में किया जाता है. बांस की कला में जनजाति के महिला व पुरुषों के साथ बच्चे तक माहिर होते हैं.
विलुप्त होने के कगार पर बांस कला
तेजी से सिमटते बाजार व आर्थिक बदहाली ने बंसोड़ जनजाति को पारंपरिक व्यवसाय से दूर कर दिया है. बांस की इस अनोखी कला को अपने बच्चों को सिखाने के लिए लिए ना तो समाज के बुजुर्ग उत्साहित हैं और ना ही युवा पीढ़ी इस पेशा को अपनाने के लिए तैयार है. युवा पीढ़ी अपने पुरखों के व्यवसाय के बजाय मजदूरी करना ज्यादा पसंद कर रही है. शिक्षा की कमी इस जनजाति के लिए सरकारी नौकरी और अन्य व्यवसाय में जाने के लिए बाधक साबित हो रही है.
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