भारत में प्राचीन काल से मिट्टी के बर्तनों का इस्तेमाल हो रहा है. वर्तमान में अब स्टील के बर्तनों का उपयोग प्रचलन में आया है. इससे मिट्टी के बर्तन विलुप्त होने के कगार पर है. लेकिन पुरातत्व विभाग के लिए आज भी मिट्टी के बर्तन सबसे खास है. क्योंकि इतिहास की तस्वीर साफ करने के लिए पुरातत्व विभाग की खोज में मिट्टी के बर्तन बहुत जरूरी हो जाते है. इसी महत्व को समझाने के लिए छत्तीसगढ़ के सबसे बड़े यूनिवर्सिटी में रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय में संस्कृति और पुरात्तव विभाग के द्वारा राष्ट्रीय स्तर का कार्यशाला का आयोजन किया गया है. इसमें देशभर के शोधार्थी शामिल हुए है. 


पंडित रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय में बड़ी कार्यशाला


दरअसल राजधानी रायपुर के पं. रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय में प्राचीन भारतीय इतिहास संस्कृति एवं पुरात्तव विभाग के द्वारा 16-22 जनवरी तक "प्राचीन भारत में मिट्टी बर्तन की परम्पराएं और निर्माण तकनीक के विषय पर सात दिवसीय राष्ट्रीय कार्यशाला का आयोजन किया गया है. इस कार्यशाला में देशभर से 11 राज्य से 125 विद्यार्थी, शोधार्थी और टीचर इसमें शामिल हुए है. इसके अलावा देश के बड़े प्रतिष्ठित यूनिवर्सिटी को अलग अलग दिन इतिहासकार आ रहे है.


मध्य पाषाण काल आदिमानव ने बनाना शुरू किया बर्तन बनाना


कार्यशाला के पहले दिन इतिहासकार ने बताया कि पुरातात्त्विक अध्ययनों में मिट्टी के बर्तनों का विशेष महत्त्व है. मध्य पाषाण काल से आदिमानव ने मिट्टी के बर्तन बनाना शुरू कर दिया था. शुरुआत के दौरान मिट्टी के बर्तन हाथ से निर्माण किया जाता है. नव पाषाण काल में पहली बार चाक निर्मित मिट्टी के बर्तन का निर्माण शुरू हुआ. इसके बाद हडप्पा काल में बहुत शानदार मिट्टी के बर्तनों का निर्माण किया जाता था. भारतीय इतिहास में अलग-अलग कालों में कोई न कोई विशेष मिट्टी के बर्तन बनते रहे हैं. 


अब शोधार्थी आसानी से बता देंगे मिट्टी के बर्तन किस काल के है


पंडित रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय की तरफ से बताया गया है कि छात्रों में प्राचीन काल के मिट्टी के बर्तन के पहचान करने की क्षमता को विकसित करना है. जब कोई छात्र किसी आर्कियोलॉजिकल साइट्स की खोज में पुरातात्त्विक सर्वेक्षण में निकलता है, तब सबसे पहले आर्कोलॉजिकल साइट्स पर उसे भू-सतह पर बिखरे हुए मिट्टी के बर्तन मिलते हैं. वहां से प्राप्त प्रत्येक मिट्टी के बर्तन का ठीकरा किसी न किसी काल से संबंधित होता है. शोधार्थी जब मृदभाण्डों को देखता है और उसके पास यदि मृद्भाण्डों के बारे में पहचान करने की क्षमता है, तब वह तत्काल बता सकता है कि मिले मृदभाण्ड किस काल से संबंधित हैं.


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