Bastar News: बस्तर में आदिवासियों के द्वारा निर्मित बस्तर की पारंपरिक कला पूरे देश और विदेशों में विख्यात है. विदेशों में बस्तर की कलाकृतियां महंगे दामों में बिकती हैं और लोग इन्हें काफी पसंद भी करते हैं, लेकिन अब बस्तर की नई पीढ़ी में इस कला को आगे बढ़ाने को लेकर रुचि कम होने के कारण इसके अस्तित्व पर खतरा मंडराने लगा है.
दरअसल बस्तर की पारंपरिक कलाओं में बेल मेटल आर्ट, टेराकोटा, बांस शिल्प कला, आलचुन्नी कला, लौह शिल्प आदि देश-विदेशों में विख्यात हैं. खास बात ये है कि इन कलाओं के लिए बस्तर के कई कलाकारों को राष्ट्रीय और राज्यस्तर पर कई पुरस्कार और सम्मान भी मिल चुके हैं, लेकिन इन कलाओं को लेकर नई पीढ़ी में रुचि कम नजर आ रही है. कुछ साल पहले जिन कला केंद्रों में जो प्रशिक्षण प्राप्त कर रहे थे वही कलाकार इस कला को वर्तमान में जीवित रखे हुए हैं, उनके बाद इस कला का क्या हश्र होगा इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इन कलाओं के प्रशिक्षुओं की संख्या भी लगातार कम होती जा रही है.
कलाकारों को नहीं मिल रहा उचित मेहनताना
दरअसल आधुनिक युग के साथ ही बस्तर के पारंपरिक कलाकारों की नई पीढ़ी बस्तर की पारंपरिक कलाकृतियों का काम छोड़ रही है. बस्तर संभाग के ऐसे कई जिले हैं जहां के गांव सिर्फ यहां बनने वाली कलाकृतियां और यहां के कलाकारों के नाम से ही पहचाने जाते थे, लेकिन आज आलम ये है कि कई गांव के कलाकार अब इस काम से ही तौबा कर रहे हैं. हालांकि ग्रामीण इसके पीछे की वजह आमदनी कम होना बता रहे हैं.
आधुनिकता के युग के साथ ही महंगाई भी बढ़ती जा रही है, ऐसे में उनके द्वारा बनाए गए बेल मेटल आर्ट, टेराकोटा और बांस शिल्प कला के साथ ही लौह शिल्पकला, आलचुन्नी कला, विदेशों में तो महंगी बिक रही हैं लेकिन देश में उन्हें उसका उचित दाम नहीं मिल रहा है. सही दाम नहीं मिल पाने की वजह से अब ग्रामीण अपने इस पारंपरिक काम को छोड़कर दूसरे कामों में ध्यान दे रहे हैं ताकि उसमें दो पैसे बच सकें. खासकर बस्तर जिले और कोंडागांव जिले में शिल्प कलाकारों की संख्या घटती जा रही है, जिससे इस पारंपरिक कला के अस्तित्व पर खतरा मंडराने लगा है.
नयी पीढ़ी नही ले रही इस काम मे रुचि
इधर हस्तशिल्प बोर्ड के अधिकारी का कहना है कि बस्तर की पारंपरिक कला को नई पीढ़ी में भी जीवित रखने के लिए समय-समय पर प्रशिक्षण दिया जाता है, साथ ही पुराने कलाकारों को भी बुलाया जाता है. हालांकि यह बात सही है कि पिछले कुछ सालों की तुलना में अब बेहद कम लोग ही प्रशिक्षण लेने आते हैं और अधिकांश नई युवा पीढ़ी दूसरे कामों में व्यस्त हो गई है. ऐसे में नई पीढ़ी को इस काम को सिखा पाने में मुश्किल हो रही है.
हालांकि कुछ चुनिंदा जैसे बेलमेटल आर्ट, लौह शिल्प और आलचुन्नी कला जैसी पारंपरिक कलाओं में बस्तर के कलाकारों को राष्ट्रपति पुरस्कार से लेकर कई पुरस्कार मिल चुके हैं, जिसमें कोंडागांव के जयदेव सोनाधर और नानजात सहित तोकापाल के सिंधु दास को राष्ट्रपति पुरस्कार मिल चुका है और इनके पुत्रों ने वर्तमान में इस कला को जीवित रखा है, लेकिन आने वाली पीढ़ी में यह दिलचस्पी होगी या नहीं होगी यह कह पाना मुश्किल है और वर्तमान में भी नई पीढ़ी में दिलचस्पी बेहद कम नजर आ रही है.
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