Diwali 2022: दीपावली (Deepawali) पर्व को धूमधाम से मनाने के लिए लोग तैयारियों में जुटे हुए हैं. नए कपड़े, गहने, मिठाइयों और रंग के साथ पटाखा बाजार में भी खरीददारी के लिए लोगों की काफी भीड़ जमा हो रही है. कोरोना (Corona) काल के चलते छत्तीसगढ़ (Chhattisgarh) के बस्तर (Bastar) में भी दीपावली का त्योहार बीते 2 सालों तक फीका पड़ा रहा, लेकिन इस साल इस पर्व को मनाने वाले लोगों में काफी उत्साह देखा जा रहा है.

 

बस्तरवासी भी जमकर खरीददारी कर रहे हैं, लेकिन अब इस पटाखे के बाजार से बस्तर की सबसे ज्यादा डिमांड में रहने वाली गोंदली और ताड़ पटाखा अब विलुप्त हो गई है और उसकी जगह चीनी पटाखों ने ले ली है.

 

दरअसल ताड़ और गोंदली पटाखा बस्तर में ही ग्रामीणों की ओर से तैयार की जाती थी, लेकिन अब धीरे-धीरे चीनी पटाखों की ज्यादा डिमांड होने की वजह से यह दोनों ही पटाखे बस्तर से विलुप्त हो गए हैं. हालांकि, अभी भी कुछ लोग यह दोनों पटाखों की डिमांड मार्केट में जरूर करते हैं. बस्तर के जानकार रुद्र नारायण पानीग्राही ने बताया कि आज से तकरीबन 20 साल पहले तक शहर के महादेव घाट इलाके में कुछ ग्रामीण और बानकरिया महाराज नाम से जाने-पहचाने सज्जन इस गोंदली पटाखा का निर्माण करते थे. सब कुछ हाथों से बनाया करते थे, लेकिन धीरे-धीरे उन्होंने पटाखे बनाने का काम छोड़ दिया.

 


 

पटाखे को फोड़ने के लिए नहीं पड़ती थी आग की जरूरत

उनके परिवार के सदस्य एस के दास बताते हैं कि स्थानीय स्तर पर बनाए जाने वाले पटाखों में गोंदली या पटकनी की बहुत मांग हुआ करती थी. किसी छोटे से प्याज के आकार में बने ये पटाखे बड़ी आसानी से हाथ से जमीन पर पटक कर दागे जा सकते थे.  एक अच्छी बात यटह भी थी कि इस पटाखे को दागने के लिए आग की बिल्कुल भी जरूरत नहीं पड़ती थी. यह सैकड़े की दर पर बिका करती थी.

 

साथ ही इसकी आपूर्ति राजधानी रायपुर तक हुआ करती थी. गोंदली के अलावा ताड़ के पटाखों की भी काफी डिमांड बस्तर और अन्य जगहों में रहती थी. यह बस्तर में सबसे ज्यादा पाए जाने वाली ताड़ के पेड़ों के पत्तों से तैयार की जाने वाली पटाखा थी, जो हाथों से फोड़ी जाती थी.

 

ग्रामीणों की होती थी अच्छी आय

कम मात्रा में बारूद को इस ताड़ के पत्तों में लपेटा जाता था और एक छोटी सी बत्ती बनाई जाती थी और इसे हाथ में पकड़कर फोड़ा जाता था. अब चीनी पटाखों की अलग-अलग वैरायटी आने से इन दोनों पटाखों का निर्माण करने वाले बस्तर के ग्रामीण और बानकरिया महाराज ने इसे बनाना बंद कर दिया. जानकार बताते हैं कि यह दोनों पटाखों से ग्रामीणों की अच्छी आय होती थी. बस्तरवासी भी इन दोनों पटाखों की ही ज्यादा डिमांड करते थे, लेकिन अब पटाखों के बाजार में अलग-अलग वैरायटी के आतिशबाजियों ने इनकी जगह ले ली.