Chhattisgarh News: पूरे भारत में इन दिनों देशवासी आजादी की 75 वीं वर्षगांठ मना रहे हैं. देश के प्रधानमंत्री के आवाह्न पर देश भर में आजादी का अमृत महोत्सव (Azadi ka Amrit Mahotsav) मनाया जा रहा है. इस साल आजादी को लेकर पूरे देश के लोग कई इलाकों से तिरंगे झंडे का सम्मान कर रहे हैं और एक उत्सव के रूप में इस आजादी को मना रहे हैं. हम इस मौके पर इस आजादी को पाने में अपना बलिदान देने वाले आजादी के दीवानों को नहीं भुला सकते. इसी कड़ी में हम आपको एक ऐसे स्वतंत्रता संग्राम सेनानी (Freedom fighter) के बारे में बताने जा रहे हैं जिन्होंने आजादी के लिए अपना बहुमूल्य योगदान दिया था.


अंग्रेजों के सामने नहीं झुकने दिया तिरंगा 
हम आपको आज छत्तीसगढ़ के दुर्ग (Durg) जिले में रहने वाले आजादी में अपना बहुमूल्य योगदान देने वाले बटंग निवासी सेनानी घसिया मण्डल के बारे में बताने जा रहें हैं. उनपर अंग्रेजों का कहर बहुत बरपा लेकिन उन्होंने तिरंगा को झुकने नहीं दिया. आजादी के लिए आयोजित सभा में तिरंगा लहराकर लोगों में जोश भरने वाले सेनानी घसिया मंडल को अंग्रेजो ने बंदूक की बट से मार-मारकर घायल कर दिया लेकिन उन्होंने तिरंगा अंग्रेजों के हाथ नहीं लगने दिया.


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14 अक्टूबर 1942 को था सुराजी सभा
बात उस समय की है जब देश की आजादी के लिए आंदोलन चल रहा था. 14 अक्टूबर 1942 को पाटन क्षेत्र के ग्राम अमलीडीह का साप्ताहिक बाजार होता था. यहां गांधीजी के अनुयायियों ने सुराजी सभा रखी रखी थी. सेनानी घसिया मंडल भी सभा में शामिल हुए थे. तिरंगा लेकर वे मंच के बगल में खड़े हो गए. इस सभा की सूचना अंग्रेजों तक पहुंची तो अंग्रेज अफसर वहां पहुंच गए और सभा का विरोध करने लगे.


लगाते रहे भारत माता की जय के नारे 
अंग्रेजों ने सभी से बलपूर्वक तिरंगा छीनने का प्रयास किया. कई लोगों से तिरंगा छीन भी लिया लेकिन वे घसिया मण्डल के हाथों से तिरंगा नहीं छीन सके. अंग्रेज अफसर ग्रामीणों से गाली गलौज और मारपीट करने लगे जिससे गुस्साए घसिया मंडल ने अपनी तुतारी लाठी से अंग्रेज अफसर के चेहरे पर ऐसा प्रहार किया कि खून बहने लगा. अंग्रेज पुलिस अफसर घसिया मंडल पर टूट पड़े और बंदूक के बट से मारने लगे. अंग्रेजों की मार से घसिया मण्डल का सिर फट गया. उस दौर में तिरंगे के प्रति सम्मान को इस बात से समझा जा सकता है कि घायल होने के बाद भी घसिया मण्डल तिरंगा अपने सीने में दबाए 'भारत माता की जय' के नारे लगाते रहे लेकिन झंडा अंग्रेजों को नहीं दिया.


उनकी याद में बनाया गया स्मारक
वे अंग्रेजों की कठोर यातनाओं के बीच जेल में 135 दिन तक रहे. इस दौरान भी वे जेल के बंदियों में राष्ट्रप्रेम जगाने का काम करते रहे. अंतत: 27 फरवरी 1943 को जेल में ही उनकी मृत्यु हो गई. भारी सुरक्षा के बीच पैतृक ग्राम बटंग में उनका अंतिम संस्कार किया गया. उनकी याद में उनके निवास के पास स्मारक भी बनाया गया है.


दुर्ग से सबसे ज्यादा स्वतंत्रता सेनानी
ऐसा माना जाता है कि छत्तीसगढ़ में आजादी के दीवानों में सबसे ज्यादा स्वतंत्र संग्राम सेनानी दुर्ग के पाटन से ही थे. यहां 75 से ज्यादा स्वतंत्रता संग्राम सेनानी हुए. ग्राम देवादा से 12 स्वतंत्रता संग्राम सेनानी आजादी के आंदोलन में शामिल थे. इन सेनानियों के नाम पाटन मर्रा, सेलूद, रानीतराई, जामगांव, दुर्ग के सरकारी हायर सेकेंडरी स्कूलों में 1975 में स्थापित शिलालेखों में अंकित किए गए हैं.


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