Germany Chamomile: जिले में रोजगार मुहैया कराने और किसानों की बेहतरी के लिए प्रशासन और वन विभाग लगातार प्रयास कर रहा है. पहले चाय, कॉफी, स्ट्राबेरी, काजू और नाशपाती की खेती के बाद अब जर्मनी कैमोमाइल की खेती का प्रयोग भी जिले में शुरू हो गया है.
हर्बल चाय और फार्मा उत्पादों में होता है इस्तेमाल
जिले के वन विभाग के अंतर्गत वनमण्डलाधिकारी जितेन्द्र उपाध्याय के मार्गदर्शन और उप वनमण्डलाधिकारी एस.के गुप्ता के दिशा-निर्देश में कैमोमाइल के खेती का सफल प्रयोग किया जा रहा है. उन्होंने बताया कि जर्मनी कैमोमाइल बहुत ही लोकप्रिय और व्यवसायिक रूप से महत्वपूर्ण गुणवत्ता वाला तेलीय पौधा है. इसका उपयोग हर्बल चाय और फार्मा उत्पादों में किया जाता है. इत्र, पेय और बेकरी उत्पादों में स्वाद बढ़ाने वाले एजेन्ट और शामक के रूप में भी इसका उपयोग किया जाता है. यूनानी चिकित्सा पद्वति में भी यह लोकप्रिय है. उन्होंने बताया कि जशपुर में कैमोमाइल की खेती का जय जंगल किसान उत्पादक कम्पनी का प्रयोग पूर्णतः सफल रहा है. वृहद्ध स्तर पर खेती कर रहे जिले के छोटे किसान भी इससे लाभांवित होगें और किसानों की आमदनी बढ़ेगी.
खेती का तरीका
वन विभाग से प्राप्त जानकारी के अनुसार कैमोमाइल की खेती से पूर्व भूमि तैयारी के लिए एमबी प्लाऊ दो दांत वाले से भूमि की अच्छी तरह जुताई करनी चाहिए. तत्पश्चात कल्टीवेटर से 2 बार जुताई करनी चाहिए. जिसमें 1 बार सीधे और दूसरी बार आडे में जुताई करनी चाहिए. इसके बाद रोटोवेटर से भूमि की जुताई करनी चाहिए ताकि मिट्टी के टुकड़े बारीक हो जाएं और मिट्टी भूरभूरी हो जाये. कैमोमाइल का रोपण रोपा लगाकर नर्सरी पद्धति के माध्यम से खेत में किया जाता है. जिसमें भूमि को 3 फीट चौड़ी और 1 फीट ऊंची बेड़ बनाकर उसे गीला करके बीज बुआई की जाती है. एक एकड़ खेत में 300 से 400 ग्राम बीज की आवश्यकता होती है. बीज बुआई के 20-25 दिन बाद उगे छोटे पौधों को खेत में पौधों का रोपित कर दिया जाता है. कैमोमाइल की खेती नर्सरी तैयार कर पौधों को खेत में 30 से 30 से.मी. की दूरी और लाईन से 1 फीट की दूरी पर रोपण करना चाहिए.
भूमि की तैयारी के समय एक एकड़ खेत में कम से कम 500 कि.ग्रा. से 1 टन वर्मीकम्पोस्ट खेत में डालना चाहिए या इससे अधिक मात्रा में भी डाले जाने पर भूमि की उपजाउता और अधिक बढ़ेगी. इसमे फास्फोरस और पोटैशियम से ज्यादा नाइट्रोजन अच्छी प्रतिक्रिया देती है. अच्छे फूल और तेल के उत्पादन हेतु मौलिब्डेनम और बोरॉन उर्वरक के रूप में देना चाहिए. बीज बोने के तुरंत बाद स्प्रिंकलर या अन्य विधि से सिंचाई करनी चाहिए. यह सर्दियों में उगाई जाने वाली फसल है. इस कारण सिंचाई की आवश्यकता कम होती है. बीज अंकुरण के पश्चात् 10 से 20 दिन में एक बार सिंचाई करनी चाहिए.
ग्रीष्म ऋतु के पहले फसल की कटाई हो जाती है पूरी
फसल की कटाई फरवरी माह में रोपण के 60 से 70 दिन बाद आ जाते हैं. सामान्य तौर पर 4-5 बार फूल निकलेगा जिसे हर बार हाथ से ही तोड़ा जाता है. ग्रीष्म ऋतु के पहले फसल की कटाई पूरी हो जाती है. जैसे-जैसे तापमान बढ़ता है फूल आना रूक जाता है. फूल आने के 15 से 20 दिनों बाद फूल की कटाई करनी चाहिए. फूलों को 3 से 4 दिन तक छाया में सुखाना चाहिए. ताजे फूल 2000-2500 कि.ग्रा. प्रति एकड़ उत्पादन होता है. सूखे फूल 400-500 कि.ग्रा. प्रति एकड़ में प्राप्त होता है.
बरतनी चाहिए ये सावधानियां
इसे लगाने में कुछ सावधानियां बरतनी पड़ती है. जैसे कि रोपण के लिए अच्छे गुणवत्ता युक्त बीज का उपयोग करना. पौधों के रोपण से पूर्व भूमि की अच्छे से जुताई करना. रोपण के बाद तत्काल सिंचाई करना. भूमि में बीजों से बुआई न कर नर्सरी पद्धति से पौधे उगाकर पौधों का रोपण करना चाहिए. रोपण से पूर्व खरपतवार नियंत्रण आवश्यक है. जड़ी-बुटी की खेती के लिए जैविक खेती को प्राथमिकता दी जाती है. यदि रसायन का प्रयोग किया जाता है तो उसकी मात्रा बहुत कम होना चाहिए. इसकी जड़ें गहरी नहीं होती इसलिए खेत में गहरी जुताई की आवश्यकता नही होती है. खरपतवार के कारण फसल के उपज में 10 से 30 फीसदी की कमी आती है इसलिए 1-2 महीने फसल को खरपतवार से मुक्त रखना चाहिए.
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