Kanker News: हादसे में गंवाया पैर, फिर खुद बनाया लकड़ी का पांव, पढ़ें कांकेर के इस शख्स की स्टोरी
विकलांग मानसिंह बताते हैं कि बकायदा लकड़ी के पैर से साइकिल भी चलाते हैं और खेती किसानी का काम भी करते हैं. घर से तीन किलोमीटर दूर खेत में किसानी कर मानसिंह परिवार का पालन पोषण करते हैं.
Kanker News: 'मंजिल उन्हीं को मिलती है, जिनके सपनों में जान होती है, पंख से कुछ नहीं होता, हौसलों से उड़ान होती है.' इस कहावत को कांकेर जिले के एक छोटे से गांव में रहने वाले मानसिंह राम मंडावी ने सच कर दिखाया है. मानसिंह राम मंडावी ने विकलांगता को जिंदगी में कभी बाधा नहीं बनने दिया. संघर्ष और मेहनत के जरिए खेती किसानी में दिव्यांग मानसिंह ने मिसाल पेश की है. खेती किसानी कर परिवार का पालन पोषण करनेवाले दिव्यांग मानसिंह राम मंडावी के हौसले को कांकेर में हर कोई सलाम कर रहा है.
दुर्घटना में पैर गंवाने के बाद खुद से बनाया लकड़ी का पांव
पखांजुर ब्लॉक के नागिदाहा गांव में रहने वाले मानसिंह राम मंडावी 30 साल पहले दुर्घटना का शिकार हो गए थे. मानसिंह राम मंडावी गांव के कुएं में गिर गए थे. उन्होंने बताया कि जड़ी बूटी और देसी दवाई से पैर धीरे-धीरे गलने लगा. हादसे में दांए पैर का पंजा काटना पड़ा. आर्थिक तंगी होने की वजह से कृत्रिम पैर नहीं ले पाए. आश्रम की तरफ से बैसाखी जरूर मिला. कुछ दिन तक बैसाखी से चलने के बाद खुद को असहाय महसूस करने लगे. परिवार के पालन पोषण की भी जिम्मेदारी मान सिंह पर थी. आखिरकार उन्होंने खुद के हाथों से लकड़ी का पैर बनाया. शुरुआत में गांववाले कहने लगे लकड़ी के पैर से नहीं चल पाओगे. उन्होंने गांववालों की बातों की परवाह नहीं की.
खुद को नहीं माना विकलांग और ना ही ली किसी की मदद
मानसिंह बताते हैं कि बकायदा लकड़ी के पैर से साइकिल भी चलाते हैं और खेती किसानी का काम भी करते हैं. घर से तीन किलोमीटर दूर खेत में किसानी कर मानसिंह परिवार का पालन पोषण करते हैं. मानसिंह रोजाना तीन किलोमीटर साइकिल चलाकर घर से खेत पहुंचते हैं. हर दो साल में बनाया लकड़ी का पैर सड़ जाने पर फिर से बनाते हैं. मानसिंह ने कभी खुद को विकलांग नहीं माना और ना ही परिवार पालने के लिए भीख मांगने की सोची. उन्होंने ठान लिया था कि मेहनत से परिवार का पालन पोषण करना है. खुद के बनाए लकड़ी के पैर से मानसिंह आम इंसान की तरह हर काम कर लेते हैं. ग्रामीणों का कहना है कि मानसिंह पूरे जिले और बस्तर संभाग के लिए एक मिसाल हैं. पैसे के अभाव में लाखों रुपए का कृत्रिम पैर तो नहीं ले सके, लेकिन खुद के देसी जुगाड़ से पैर बनाकर परिवार का पालन पोषण कर रहे हैं. उनके हौसले को आज हर कोई सलाम करने पर मजबूर है.
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