Chhattisgarh News: छत्तीसगढ़ के बस्तर में बुधवार की देर रात सैकड़ों ग्रामीणों ने चोरी की वारदात को अंजाम दिया. ये चोरी किसी और चीज की नहीं बल्कि एक विशालकाय 8 चक्कों की रथ होती है, जिसे विजयदशमी के दिन आधी रात को बस्तर जिले के माड़िया और गोंड जनजाति के सैकड़ों आदिवासी ग्रामीण दंतेश्वरी मंदिर के परिसर से चोरी कर 3 किलोमीटर दूर कुम्हड़ाकोट के जंगल में ले जाते हैं और इस चोरी की राज परिवार को भनक तक नहीं लगती है.
600 सालों से चली आ रही है परंपरा
दूसरे दिन जब राजकुमार को इस बात की जानकारी मिलती है तो बकायदा राजकुमार अपने लाव लश्कर के साथ ग्रामीणों के पास कुम्हड़ाकोट जंगल पहुंचते हैं और उन्हें मान मनोव्वल कर और उनके साथ नए फसल की चावल की खीर खाकर चोरी की गई रथ को वापस लेकर आते हैं. दरअसल, यह रस्म विश्व प्रसिद्ध बस्तर दशहरा पर्व के विजयदशमी के दिन आधी को रात निभाई जाती है. 600 साल की इस परंपरा को आज भी बखूबी निभाया जाता है.
60 गांव के लोग चुराते हैं रथ
बस्तर के जानकार हेमंत कश्यप ने बताया कि रियासत काल से इस परंपरा का निर्वहन किया जा रहा है. बस्तर जिले के किलेपाल करेकोट, गढ़िया समेत लगभग 60 गांव के लोग भीतर रैनी रस्म के दौरान रथ चुराने की परंपरा का निर्वहन करते हैं. विजयदशमी के दिन आधी रात को राज महल के मुख्य द्वार के सामने 8 चक्के के नए दो मंजिला विजय रथ को चुराकर कुम्हड़ाकोट के जंगल में ले जाते हैं और इस जंगल में रथ को छुपा कर रखा जाता है.
राजशाही युग से चली आ रही है परंपरा
कश्यप ने बताया कि राजशाही युग में बस्तर के राजा के खातिरदारी से असंतुष्ट ग्रामीणों ने नाराज होकर राजा की सबसे बहुमूल्य चीज कही जाने वाली विशालकाय रथ को आधी रात में चुराकर कुम्हड़ाकोट के जंगल में छुपा दिया था. सुबह राजा को इस बात की खबर लगी तो वे अपने लाव लश्कर के साथ उन ग्रामीणों तक पहुंचे और नाराज ग्रामीणों को मनाकर और उनके साथ नये फसल का भोज कर शाही अंदाज में रथ को वापस जगदलपुर के दंतेश्वरी मंदिर में लाया. तब से यह परंपरा आज भी बखूबी निभाई जाती है और बस्तर दशहरा की रस्म सदियों से वैसे ही चली आ रही है. गुरुवार को बकायदा बस्तर के राजकुमार कमलचंद भंजदेव इन नाराज ग्रामीणों के पास पहुंचकर और उनके साथ नई फसल की खीर खाकर शाही अंदाज में वापस इस रथ को राज महल लेकर पहुंचेंगे जिसे बाहर रैनी रस्म कहा जाता है.