Chhattisgarh News: छत्तीसगढ़ के बस्तर में आदिवासियों में जल, जंगल और जमीन से जुड़ी सनातन परंपरा आज भी कायम है. बस्तर के आदिवासी पेड़ों को अपने जीवन के लिए काफी महत्वपूर्ण मानते हैं. वे अपने जीवन काल में सल्फी, ताड़, महुआ, बरगद, पीपल, आम, नींबू , केला, मुनगा, अमरुद, बेर, गूलर, तेंदू, साल, साजा और बेल प्रजाति के पेड़ों को अपना जीवन रक्षक मानते हैं. इसलिए इन पेड़ों की जान से बढ़कर रक्षा करते हैं.


कांगेर वैली नेशनल पार्क में फॉरेस्ट बीट गार्ड रह चुके स्वर्गीय पतिराम तारम ने पर्यावरण, सांस्कृतिक वन संवर्धन नामक अपने शोध में पाया था कि बस्तर के आदिवासी 16 प्रजातियों के पेड़ों को कभी नुकसान नहीं पहुंचाते हैं.


शादी विवाह और पूजा पाठ में होता है इन पेड़ों का महत्व
आदिवासी समाज प्रमुख प्रकाश ठाकुर ने बताया कि आदिवासियों में महुआ, साल और साजा के पत्तों से अर्पण कर प्रकृति की पूजा की जाती है. आदिवासी संस्कृति में पेड़-पौधों का ब्याह भी रचाया जाता है. आम के पेड़ की टहनी पिता की बहन बुआ को देने का रिवाज है. माना जाता है कि ऐसा करने से रिश्ते और मजबूत होते हैं. विवाह संस्कार को भी पूरा करने महुआ, साल, साजा के लकड़ी से बनी खंभों की मदद से इनके पत्तों की छांव वाला मंडप आज भी बनाया जाता है. 


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इन्हें देवता मान लिया जाता है
यही नहीं अविवाहितों या पति-पत्नी की मौत के बाद उनके बेटे या पोते महुए के पेड़ की लकड़ी से बने पुतले और पुतली बनाकर विधि विधान से ब्याह रचाते हैं और इन पुतलों और पुतलियों को कुल देवता मान लिया जाता है. जिस किसी आदिवासी के घर ब्याह होता है तो दूल्हन के घर वालों के द्वारा दूल्हे के घरवालों को सल्फी का पौधा देने की परंपरा आज भी कायम है. इस तरह की परंपरा केवल बस्तर में ही देखने को मिलती है. यही वजह है कि बस्तर के आदिवासियों के 16 प्रजातियों के पेड़ों के प्रति काफी गहरी आस्था है. इन पेड़ों को वे कभी नुकसान नहीं पहुंचाते हैं. इसके अलावा मौत को मान देते हुए शिशु का शव महुआ पेड़ के नीचे दफनाया जाता है तो वहीं गर्भवती महिला का शव गांव से दूर अर्जुन या कुसुम पेड़ के नीचे दफनाया जाता है.


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