Delhi News: दिल्ली उच्च न्यायालय ने कहा है कि किसी व्यक्ति के जीवन साथी चुनने के अधिकार को आस्था और धर्म के मामलों तक सीमित नहीं किया जा सकता. अदालत ने कहा कि शादी करने का अधिकार "मानवीय स्वतंत्रता" है और जब इसमें वयस्कों की सहमति शामिल हो तो इसे राज्य, समाज या माता-पिता द्वारा निर्धारित नहीं किया जाना चाहिए. यह टिप्पणी तब आई, जब न्यायमूर्ति सौरभ बनर्जी ने महिला के परिवार से धमकियों का सामना कर रहे एक जोड़े को सुरक्षा दी.
अनुच्छेद 21 के अनुसार पसंद के व्यक्ति शादी करने का अधिकार
इस बालिग जोड़े ने अपने माता-पिता की इच्छा के विरुद्ध, विशेष विवाह अधिनियम, 1954 के तहत विवाह किया, जिसके कारण उन्हें लगातार धमकियां मिलती रहीं. अदालत ने कहा कि अपनी पसंद के व्यक्ति से शादी करने का अधिकार संविधान के अनुच्छेद 21 का अभिन्न अंग है, जो जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार की गारंटी देता है. इसमें इस बात पर प्रकाश डाला गया कि व्यक्तिगत पसंद, विशेष रूप से विवाह के मामलों में, अनुच्छेद 21 के तहत संरक्षित हैं. न्यायमूर्ति बनर्जी ने कहा कि महिला के माता-पिता जोड़े के जीवन और स्वतंत्रता को खतरे में नहीं डाल सकते. उन्होंने कहा कि उन्हें अपने व्यक्तिगत निर्णयों और विकल्पों के लिए सामाजिक अनुमोदन की जरूरत नहीं है. अदालत ने अधिकारियों को निर्देश दिया कि वे जोड़े को एक बीट कांस्टेबल और एसएचओ की संपर्क जानकारी प्रदान करें, ताकि उनकी सुरक्षा सुनिश्चित की जा सके.
जानबूझकर संबंध बनाने से इनकार करना क्रूरता
वहीं अन्य मामले में भी हाईकोर्ट की तरफ से कहा गया है कि जीवनसाथी का जानबूझकर संबंध बनाने से इनकार करना क्रूरता है. कोर्ट ने इस मामले में एक दंपती को मिले तलाक के आदेश को बरकरार रखा है. इस दंपति की शादी महज 35 दिन ही चली थी. वहीं एक दूसरे मामले में हाईकोर्ट की तरफ से अंतरधार्मिक जोड़े की याचिका पर सुनवाई की गई. जिसमें कहा गया कि जीवनसाथी का चयन आस्था, धर्म से प्रभावित नहीं हो सकता है.
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