Arvind Kejriwal Resignation: दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल भारतीय राजनीति के इतिहास में इकलौते ऐसे मुख्यमंत्री हैं, जो मुख्यमंत्री रहते हुए जेल गए, मुख्यमंत्री रहते हुए पांच महीने से भी ज्यादा का वक्त जेल में गुजारा और मुख्यमंत्री रहते हुए ही जमानत पर जेल से रिहा हुए. अब जब उनकी रिहाई हो गई है तो वो इस्तीफा देने जा रहे हैं. सवाल है कि क्यों.


जब केजरीवाल मुश्किलों में घिरे थे, जब वो जेल जा रहे थे या फिर जब वो जेल चले गए थे. तब उन्होंने इस्तीफा क्यों नहीं दिया. अब जब वो जेल से बाहर आ गए हैं, तब वो इस्तीफा क्यों दे रहे हैं. आखिर क्या है अरविंद केजरीवाल के इस्तीफे की असली कहानी?


लाल कृष्ण आडवाणी ने दिया था पद से इस्तीफा 
नैतिकता का तकाजा तो यही कहता है कि जैसे ही नेता पर आरोप लगे, वो अपना पद छोड़ दे. उदाहरण के तौर पर लाल कृष्ण आडवाणी, जिनका नाम जैन हवाला कांड में सामने आया तो उन्होंने सांसद के पद से इस्तीफा दे दिया. वह तब तक चुनाव नहीं लड़े, जब तक कि वो बाइज्जत बरी नहीं हो गए. 


चारा घोटाले में गिरफ्तारी से पहले लालू यादव ने भी इस्तीफा दे दिया. अभी हाल ही में झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने इस्तीफा दिया था. जब हेमंत सोरेन को लगा कि अब गिरफ्तारी 100 फीसदी तय है तो उन्होंने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया और तब उनकी गिरफ्तारी हुई. जेल से रिहा हुए तो वो फिर मुख्यमंत्री बन गए. लेकिन अरविंद केजरीवाल ने ऐसा नहीं किया. आखिर क्यों?


अरविंद केजरीवाल के इस्तीफा की नहीं थी जरूरी 
इस क्यों का जवाब मिलता है अदालत के फैसले में. जब अरविंद केजरीवाल की गिरफ्तारी हुई और बीजेपी ने केजरीवाल पर इस्तीफे का दबाव बनाते हुए अदालत का रुख किया तो अदालत ने कानूनों का हवाला देते हुए कहा कि अरविंद केजरीवाल का इस्तीफा जरूरी नहीं है. वो जेल से सरकार चला सकते हैं. तो केजरीवाल जेल से सरकार चलाते रहे. दिल्ली सरकार के मंत्री-अधिकारी केजरीवाल से जेल में मिलते रहे. फाइलें साइन होती रहीं और दिल्ली का काम चलता रहा. साथ ही केजरीवाल आम आदमी पार्टी के संयोजक भी हैं, तो पार्टी का भी काम चलता रहा.


सरकार चलाने में हो जाती मुश्किल 
लेकिन केजरीवाल की जमानत देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने जो शर्तें रखीं, उसमें केजरीवाल का दिल्ली की सरकार चलाना लगभग नामुमकिन हो गया था. सुप्रीम कोर्ट के आदेश के मुताबिक न तो वो मुख्यमंत्री ऑफिस जा सकते थे, न ही दिल्ली सचिवालय जा सकते हैं और न ही बतौर मुख्यमंत्री किसी फाइल पर साइन कर सकते हैं. जबकि जेल में रहते हुए केजरीवाल फाइलों पर साइन कर सकते थे. ऐसे में केजरीवाल के लिए न सिर्फ सरकार चलाना मुश्किल है, बल्कि पांच महीने बाद होने जा रहे दिल्ली विधानसभा चुनाव से पहले चुनावी वादे करने में भी केजरीवाल को मुश्किल आ रही है. लिहाजा केजरीवाल ने इस्तीफा देने का ऐलान कर दिया है.


अब इस ऐलान की वजह से अरविंद केजरीवाल एक तीर से दो निशाने साध चुके हैं. पहला तो दिल्ली है, जहां का काम-काज ठीक से चलता रहेगा. चुनाव के दौरान की जाने वाली घोषणाएं की जा सकेंगी और पूरा फोकस दिल्ली विधानसभा चुनाव के ईर्द-गिर्द रखा जा सकेगा. लेकिन इससे भी बड़ा निशाना बीजेपी पर लगा है, जिसके सारे आरोपों का एक ही दांव में केजरीवाल ने जवाब दे दिया है.


बीजेपी चाहती थी कि केजरीवाल का इस्तीफा हो तो वो हो गया, बीजेपी कहती थी कि केजरीवाल भ्रष्ट हैं और कभी अपना पद नहीं छोड़ेंगे तो अपनी ईमानदारी का हवाला देते हुए उन्होंने पद छोड़ दिया, बीजेपी मुख्यमंत्री आवास को शीश महल बता रही थी तो इस्तीफा देने के बाद केजरीवाल वो शीशमहल भी खाली करने का ऐलान कर दिया.


इस्तीफे के जरिए करिश्मे को दोहराने की कोशिश में सीएम केजरीवाल
तो अब बीजेपी केजरीवाल पर क्या कहेगी. कौन से आरोप लगाकर उनका घेराव करेगी. और बीजेपी जो भी कहेगी, उसका जवाब केजरीवाल और आम आदमी पार्टी के पास है. बाकी रही बात इस्तीफे की तो याद करिए अरविंद केजरीवाल का बतौर मुख्यमंत्री पहला कार्यकाल जिसमें मुख्यमंत्री रहते हुए केजरीवाल ने अचानक से इस्तीफा दे दिया था और चुनाव के बाद ऐसी वापसी की थी कि उसकी कोई दूसरी मिसाल खोजे भी नहीं मिलती है. इस इस्तीफे के जरिए केजरीवाल उसी करिश्मे को दोहराने की कोशिश में हैं. और तभी तो वो चाहते हैं कि दिल्ली का विधानसभा चुनाव फरवरी में न होकर नवंबर में ही हो जाए.


बाकी तो केजरीवाल के साथ मनीष सिसोदिया ने भी कोई पद न लेने और जनता की अदालत में खुद को ईमानदार साबित होने तक के लिए इंतजार करने को कहा है और कायदे से ये इंतजार तो कम से कम फरवरी तक हो सकता है जब अगला चुनाव हो और नई सरकार बने. लेकिन इंतजार कम से कम हो, इसलिए केजरीवाल तुरंत चुनाव चाहते हैं ताकि अपनी नई गढ़ी हुई छवि के जरिए वो 2015 वाला करिश्मा दोहरा सकें. इसमें केजरीवाल कितने कामयाब होंगे, इसे पऱखने के लिए थोड़ा इंतजार करना होगा.


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