Battle of Karbala History: जैसे ही दोपहर के 12 बजते हैं, अहमदाबाद शहर से महज 115 किलोमीटर दूर गांव सेवला में मंदार के बाहर भारी भीड़ जमा हो जाती है. ये लोग सतपंथी संप्रदाय के मानने वाले हैं, जिसमें हिंदू-रबारी के साथ-साथ कुछ अन्य समुदायों के सदस्य भी शामिल हैं. ये लोग कथाकारों को सुनने के लिए एक साथ जमा होते हैं. यहां 'कर्बला की जंग' के वाकये को थोड़ा-थोड़ा करके सुनाया जाता है. बता दें, मुहर्रम के दिन पैगंबर मोहम्मद के पोते इमाम हुसैन की शहादत हुई थी.
हर साल कथा का होता है आयोजन
टीओआई के अनुसार, यहां हर साल सतपंथी अपने मुस्लिम भाइयों के साथ मुहर्रम के 10 दिनों के दौरान शोक मनाते हैं जो आशूरा के साथ समाप्त होता है. "इस अवधि के दौरान मुहर्रम 'कथा' आयोजित की जाती है. लोग दोपहर में मंदार पर इकट्ठा होते हैं. वे दोपहर 3 बजे तक कथा को एकदम शांत होकर सुनते हैं. सेवला गांव में रहने वाले 65 वर्षीय सतपंथी जीवराजभाई देसाई कहते हैं, "मैं 60 से अधिक वर्षों से मंदार में कथा में भाग ले रहा हूं. परंपरा पहली बार 600 साल पहले शुरू हुई थी जब हजरत पीर इमाम शाह बावा ने पिराना गांव का दौरा किया था. माना जाता है कि उन्होंने ग्रामीणों को सहिष्णुता और धर्मों की सार्वभौमिकता सिखाकर सूफी-प्रेरित सतपंथ (सच्चा मार्ग) विश्वास की स्थापना की थी.
क्या बोले इमाम शाह बावा के वंशज?
इमाम शाह बावा के वंशज, कालूपुर के अली हैदर बावा कहते हैं, "हम हर साल सेवला में आयोजित इस कथा में भाग लेते हैं. कथा सत्य, अहिंसा, सद्भाव और संयम के मूल्यों का प्रचार करती है." सामाजिक कार्यकर्ता देव देसाई कहते हैं, "पाटन और बनासकांठा जिलों में रहने वाले रबारी सतपंथ संप्रदाय के हैं, जो पिराना गांव के आसपास केंद्रित है. इसे औलिया भी कहा जाता है, जिसे संतों के धर्म के रूप में जाना जाता है. यदि कोई सतपंथी मर जाता है तो एक परंपरा है उसे पिराना में दफनाना. मेरे दादा-दादी को भी पिराना में दफनाया गया था."
ये भी पढ़ें: