Gujrat Election: खाम, ओबीसी आरक्षण में वृद्धि और ध्रुवीकरण ने गुजरात में तोड़ी कांग्रेस की कमर, जानें- कैसे
Gujrat: पाटीदारों में पहले से ही कांग्रेस विरोधी भावनाएं विकसित होने लगी थीं. 80 के दशक के अंत में अमरसिंह चौधरी के शासन के दौरान आंदोलनकारी किसानों पर पुलिस की गोलीबारी में 18 किसान मारे गए थे.
Gujrat Election: गुजरात 1960 में अस्तित्व में आया और 1962 में हुए पहले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने 154 में से 113 सीटों पर जीत हासिल की. 1985 में रिकॉर्ड 149/182 सीटों और 55.55 फीसदी वोट शेयर के साथ गुजरात के दिलों पर राज करने वाली पार्टी अब सत्ता में वापसी के लिए संघर्ष कर रही है.
60 के दशक के अंत में कांग्रेस पार्टी के खिलाफ एक दीर्घकालिक रणनीति बनाई गई थी, जिसे चरणबद्ध तरीके से अंजाम दिया गया ताकि पार्टी की छवी खराब हो और कांग्रेस विरोधी भावना पैदा हो. कांग्रेस पार्टी की ओर से उठाए गए कुछ कदम भी उसके लिए घातक साबित हुआ. पार्टी की खाम (क्षत्रिय-हरिजन-आदिवासी-मुस्लिम) राजनीतिक रणनीति ने पाटीदारों और अन्य उच्च वर्गों को कांग्रेस से दूर कर दिया.
ओबीसी आरक्षण में 10 प्रतिशत वृद्धि से उच्च जातियों, शहरी मतदाताओं और कांग्रेस के बीच खाई बढ़ी
राजनीतिक विश्लेषक मणिभाई पटेल कहते हैं कि 1985 में कांग्रेस सरकार द्वारा ओबीसी आरक्षण में 10 प्रतिशत की वृद्धि ने पहले से ही व्याप्त उच्च वर्गो में असंतोष को और भड़का दिया. इससे उच्च जातियों, शहरी मतदाताओं और कांग्रेस के बीच खाई और गहरी हो गई. पाटीदारों में पहले से ही कांग्रेस विरोधी भावनाएं विकसित होने लगी थीं. 80 के दशक के अंत में अमरसिंह चौधरी के शासन के दौरान आंदोलनकारी किसानों पर पुलिस की गोलीबारी में 18 किसान मारे गए थे. मणिभाई पटेल बताते हैं कि इस घटना ने पटेलों को हमेशा के लिए कांग्रेस से दूर कर दिया.
2000 के दशक के मध्य विकास मॉडल की एक नई परिभाषा
पटेल विकास मॉडल की एक नई परिभाषा की ओर ध्यान आकर्षित करते हैं. 2000 के दशक के मध्य से बुनियादी सामाजिक ढांचे, मनोरंजन के बुनियादी ढांचे जैसे संग्रहालय, कांकरिया रिवर फ्रंट का पुनर्विकास, साइंस सिटी, अटल पुल, कच्छ में स्मृति औरन, गांधीनगर या सूरत में सम्मेलन केंद्र राज्य के विकास के मॉडल हैं. इसके साथ ही गुजरात में एक समानांतर हिंदुत्ववादी मानसिकता विकसित हो रही थी और कांग्रेस को निचली जातियों, दलितों, मुसलमानों की पार्टी के रूप में चित्रित करने का प्रचार जोर पकड़ रहा था.
1980 के दशक में आरक्षण पर हुए दंगे
1980 के दशक में आरक्षण पर हुए दंगे, 1985 के आरक्षण विरोधी आंदोलन ने सांप्रदायिक रूप ले लिया. इसने पार्टी की छवि को नुकसान पहुंचाया. कांग्रेस उपाध्यक्ष अशोक पंजाबी के अनुसार यह दोहरी रणनीति न केवल समाज को विभाजित कर रही थी बल्कि कांग्रेस के वोट बैंक को भी नष्ट कर रही थी. उन्होंने समझाया हालांकि कांग्रेस ने दलितों, मुसलमानों, आदिवासियों और अन्य पिछड़े वर्गों के लिए बहुत कुछ किया, लेकिन उन्होंने भी पार्टी छोड़नी शुरू कर दी. लेकिन इनको रोकने के लिए पार्टी ने कोई प्रभावी रणनीति नहीं बनाई.
संघ कैडर की तरह कांग्रेस पार्टी का सेऔरा दल पार्टी की रीढ़ था और राष्ट्रवादी के लिए प्रतिबद्ध था, लेकिन इसने अपना आकर्षण खो दिया. पार्टी ने उन सहकारी समितियों पर भी नियंत्रण खो दिया, जहां से उनके नेता निकलते थे. अब इस पर बीजेपी का कब्जा है. इन सभी ने कांग्रेस की समस्याओं को कई गुना बढ़ा दिया और उसकी वापसी की राह को कठिन बना दिया. राजनीतिक विश्लेषकों और पार्टी नेताओं का मानना है कि पार्टी की सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि उसे ऐसे करिश्माई जननेता कभी नहीं मिले, जो मुद्दों को दरकिनार कर पार्टी को ऊपर उठा सकें.