कभी देखा है 30 हजार रुपये का रूमाल, जानें क्या है इस चंबा रूमाल में खास?
Shimla News: चंबा रूमाल तैयार करने में दिनों का नहीं बल्कि महीनों का वक्त लग जाता है. ऐतिहासिक शैली को संजोए हुए कारीगरों को चंबा रूमाल बनाने में काफी मेहनत करनी पड़ती है.
Himachal Pradesh News: हिमाचल प्रदेश की राजधानी और पहाड़ों की रानी शिमला में इन दिनों लगे राज्य संग्रहालय और भाषा एवं संस्कृति विभाग के क्राफ्ट मेले से शहर भर में रौनक का माहौल है. राजधानी शिमला के ऐतिहासिक रिज मैदान पर लगे अलग-अलग उत्पाद हर किसी को अपनी तरफ आकर्षित कर रहे हैं. इसी तरह क्राफ्ट मेले में लगा चंबा रूमाल भी लोगों के आकर्षण का केंद्र है. इसके पीछे की वजह चंबा रूमाल में गहराई से किया गया काम और इसका दाम है. दरअसल, यहां बिकने वाला चंबा रूमाल 30 हजार रुपये तक का मिल रहा है. क्राफ्ट मेले में चंबा रूमाल के स्टॉल पर प्रदर्शनी लगाने वाली शोभा ने बताया कि यहां 250 रुपये से 30 हजार रुपये तक के रूमाल उपलब्ध हैं. 30 हजार रुपये के दाम वाले खास चंबा रूमाल में मणिमहेश यात्रा का चित्रण किया गया है.
विश्वभर में है चंबा रूमाल की पहचान
चंबा रूमाल की लोकप्रियता दिन-प्रतिदिन बढ़ती चली जा रही है. आज चंबा रूमाल किसी पहचान का मोहताज नहीं रह गया है. बड़े-बड़े अवसर और अंतरराष्ट्रीय कार्यकर्मों में चंबा रूमाल भेंट दिए जाने से इसकी लोकप्रियता का अंदाजा लगाया जा सकता है. चंबा रूमाल की खासियत होती है कि इसके दोनों तरफ एक तरह का ही चित्र देखने को मिलता है. चंबा रूमाल में आम रूमाल की तरह उल्टी और सीधी तरफ नहीं होती. इसमें इस्तेमाल होने वाले धागे को भी विशेष रूप से अमृतसर से मंगाया जाता है. चंबा रूमाल तैयार करने में दिनों का नहीं बल्कि महीनों का वक्त लग जाता है. ऐतिहासिक शैली को संजोए हुए कारीगरों को चंबा रूमाल बनाने में काफी मेहनत करनी पड़ती है.
16 वीं शताब्दी में हुई थी चंबा रूमाल बनाने की शुरुआत
नाम से यह प्रतीत हो सकता है कि चंबा रूमाल जेब में रखने वाली चीज हो, लेकिन चंबा रूमाल जेब में नहीं, बल्कि दीवार पर लगाने वाली वह अद्भुत कला है जिसकी मुरीद विश्वभर के लोग हैं. माना जाता है कि 16वीं शताब्दी में गुरु नानक देव जी की बहन नानकी ने सबसे पहले चंबा रूमाल बनाने की शुरुआत की थी. इस रूमाल को आज तक होशियारपुर की गुरुद्वारे में सहेज कर रखा गया है.
शगुन की थाली ढकने के लिए भी होता है इस्तेमाल
इसके बाद 17वीं सदी में राजा पृथ्वी सिंह ने चम्बा रूमाल की कला को संवारा और रूमाल पर ‘दो रुखा टांका’ कला की शुरुआत की. उस समय चंबा रियासत के आम लोगों के साथ शाही परिवार भी चंबा रूमाल की कढ़ाई किया करते थे. शाही परिवार के लोग इस चंबा रूमाल का इस्तेमाल शगुन की थाली ढकने के लिए भी किया करते थे. 18वीं-19वीं शताब्दी में इस चंबा रूमाल की लोकप्रियता और अधिक बढ़ी. आज के वक्त में भी चंबा रूमाल विश्व भर में प्रख्यात है.