शिमला की ऊंची पहाड़ी पर रहती हैं मां तारा, क्या है मान्यताएं?
Tara Devi Temple: शिमला की ऊंची पहाड़ी पर माता तारा का साक्षात वास है. करीब 250 साल पहले इस मंदिर का निर्माण हुआ था. यह भक्तों की आस्था का अटूट केंद्र है.
Tara Devi Temple Shimla: शारदीय नवरात्रि के मौके पर देश भर के मंदिरों में भक्तों की भारी भीड़ है. देवभूमि हिमाचल के मंदिरों में भी भक्तों का तांता लगा हुआ है. आज नवमी के मौके पर भक्त विशेष तौर पर मां के दर्शन के लिए दूर-दूर से पहुंच रहे हैं. शिमला के मंदिरों में भी मां के भक्तों की भारी भीड़ है.
शिमला की ऊंची पहाड़ी पर 'स्वर्ग की देवी' मां तारा का वास है. यह मंदिर समुद्र तल से 1 हजार 851 मीटर की ऊंचाई पर बना है. शिमला के शोघी इलाके की ऊंची पहाड़ी पर मां तारा विराजमान हैं. अपनी दिव्य सुंदरता और आध्यात्मिक शांति के लिए प्रसिद्ध यह मंदिर हिमाचल के लोगों के लिए आस्था का भी केंद्र है.
शिमला से लगभग 18 किलोमीटर की है दूरी
तारादेवी मंदिर शिमला से करीब 18 किलोमीटर की दूरी पर है. श्रद्धालुओं के लिए मंदिर तक पहुंचने के लिए बेहतरीन सड़क सुविधा है, लेकिन कुछ लोग यहां वादियों की सुंदरता लेने के लिए मंदिर ट्रैकिंग कर के भी पहुंचते हैं. यहां सड़क को चौड़ा करने का काम भी पूरा हो चुका है. तारादेवी मंदिर तक पहुंचने के लिए शिमला के पुराना बस स्टैंड से सीधी बस सुविधा है. इसके अलावा यहां वक्त अपनी निजी गाड़ी या टैक्सी से भी पहुंच सकते हैं. तारादेवी मंदिर तक पहुंचने के लिए रास्ता नेशनल हाईवे पर शोघी के नजदीक से जाता है. मंदिर के नजदीक ही पार्किंग की बेहतरीन सुविधा है. शिमला का तारादेवी मंदिर न सिर्फ स्थानीय लोगों के लिए बल्कि अन्य राज्यों से आने वाले भक्तों के लिए भी आस्था का केंद्र है.
पश्चिम बंगाल से मां तारा को लाया गया हिमाचल
तारादेवी मंदिर का इतिहास आज से करीब 250 साल पुराना है. कहा जाता है कि एक बार बंगाल के सेन राजवंश के राजा शिमला आए थे. एक दिन घने जंगलों के बीच शिकार खेलने से पैदा हुई थकान के बाद राजा भूपेन्द्र सेन को नींद आ गई. सपने में राजा ने मां तारा के साथ उनके द्वारपाल श्री भैरव और भगवान हनुमान को आम और आर्थिक रूप से अक्षम आबादी के सामने उनका अनावरण करने का अनुरोध करते देखा. सपने से प्रेरित होकर राजा भूपेंद्र सेन ने 50 बीघा जमीन दान कर मंदिर का निर्माण कार्य शुरू किया.
बलवीर सेन ने करवाया था मंदिर का पुनर्निर्माण
मंदिर का निर्माण कार्य पूरा होने के बाद मां तारा की मूर्ति को वैष्णव परंपरा के अनुसार स्थापित किया गया था. यह मूर्ति लकड़ी से तैयार की गई थी. कुछ समय बाद राजा भूपेंद्र सेन के वंशज बलवीर सेन को भी सपने में तारा माता के दर्शन हुए. इसके बाद बलवीर सिंह ने मंदिर में अष्टधातु से बनी मां तारा देवी की मूर्ति स्थापित करवाई और मंदिर का पूर्ण रूप से निर्माण करवाया. माना जाता है कि माता तारा, दुर्गा मां की नौवीं बहन हैं. तारा, एकजुट और नील सरस्वती माता तारा के तीन स्वरूप हैं. बृहन्नील ग्रंथ में माता तारा के तीन स्वरूपों के बारे में बताया गया है. सबको तारने वाली मां तारा की पूजा हिंदू और बौद्ध दोनों ही धर्मों में की जाती है.
शिव कुटिया करवाती है कैलाश का आभास
तारादेवी मंदिर से कुछ ही दूरी पर शिव कुटिया बनी हुई है. घने जंगल में स्थित भगवान शिव का यह छोटा-सा मंदिर है. यह मंदिर भगवान शिव के कैलाश में होने का आभास कराता है. जंगल के अन्य हिस्सों की तुलना में इस मंदिर का तापमान कुछ कम है. कई साल पहले तक यहां एक संत ध्यान लगाया करते थे. ठंड में भी वह संत केवल एक लंगोट में ही यहां तपस्या किया करते थे.
भक्तों को धुने की राख का प्रसाद
बताया जाता है कि तपस्या कर रहे वे संत दक्षिण भारत से संबंध रखते थे और मर्चेंट नेवी में एक इंजीनियर थे. मंदिर के साथ एक छोटे से कमरे में लकड़ी का बड़ा टुकड़ा लगातार जलता रहता है. इसे बाबा का धूना भी कहा जाता है. मान्यता है कि बाबा आज भी यहां ध्यान में बैठे हैं. मंदिर में धुने की राख को उनके अनुयायियों के लिए प्रसाद माना जाता है. यह भी भक्तों के लिए आस्था के साथ आकर्षण का केंद्र है.
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