Himachal Pradesh News: ब्रिटिश शासन काल में अंग्रेजों की राजधानी रही शिमला कहानियों का शहर है. यहां हर इमारत के साथ एक खास कहानी जुड़ी हुई है. आज हम आपको एक ऐसी सरकारी इमारत के बारे में बताएंगे, जहां रहने से प्रदेश के कैबिनेट मंत्री गुरेज करते हैं. कोठी भले ही बेहद आलीशान हो, लेकिन नेता इससे दूरी बनाने में ही अपनी भलाई समझते हैं.


दरअसल, बीते कुछ सालों के इतिहास पर अगर नजर डाली जाए, तो इस आलीशान क्रिस्टन हॉल में रहने वाले मंत्री अगला चुनाव नहीं जीत पाते. अब कोई इसे अंधविश्वास कहता है, तो कोई मनगढ़ंत कहानी. लेकिन, हालिया घटनाक्रम तो इस बात की तस्दीक करता नजर आता है. कैबिनेट मंत्री बनने के बाद इस आलीशान कोठी में रहने वाले कद्दावर नेता आशा कुमारी, वीरेंद्र कंवर और पूर्व मुख्यमंत्री प्रो. प्रेम कुमार धूमल चुनाव हार चुके हैं.


कोठी में रहने के बाद चुनाव हारते हैं नेता!


साल 1998 में कैबिनेट मंत्री के तौर पर इस कोठी में रहने वाले कद्दावर नेता पंडित सुखराम कभी चुनाव ही नहीं लड़े. साल 1998 में वे तत्कालीन धूमल सरकार के दौरान रोजगार सृजन समिति में कैबिनेट रैंक के साथ अध्यक्ष थे. इसके अलावा साल 2017 तक विपक्ष के नेता के तौर पर इस कोठी में रहने वाले प्रो. प्रेम कुमार धूमल को भी विधानसभा चुनाव में हार का मुंह देखना पड़ा. साल 2022 में तो धूमल चुनाव भी नहीं लड़ सके. ठीक इसी तरह साल 2017 से 2022 तक इस कोठी में रहने वाले तत्कालीन ग्रामीण विकास मंत्री वीरेंद्र कंवर भी चुनाव नहीं जीत सके. जबकि वीरेंद्र कंवर बीजेपी सरकार में बेहतरीन काम करने वाले मंत्रियों में शुमार थे.


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अब चंद्र कुमार का निवास स्थान है क्रिस्टन हॉल


हिमाचल प्रदेश में मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू के नेतृत्व वाली सरकार में वरिष्ठतम मंत्री चंद्र कुमार ने अब क्रिस्टन हॉल को अपनी रिहाइशगाह बनाया है. 78 वर्षीय चौधरी चंद्र कुमार अब इस आलीशान कोठी में रहेंगे. कहा जा रहा है कि अगले चुनाव तक चंद्र कुमार की उम्र करीब 83 साल तक हो जाएगी. ऐसे में उनका अगला चुनाव लड़ना तय नहीं है. यही वजह है कि चंद्र कुमार ने बिना किसी डर के इस आलीशान कोठी में रहने का फैसला किया है.


हालांकि यह बात भी सच है कि राजनीति में न तो चुनाव लड़ने की उम्र होती है और न ही कथित मनहूस कोठी का दंश. अब तक क्रिस्टन हॉल में रहकर चुनाव हारने वाले नेताओं की हार का कारण सिर्फ कोठी ही नहीं, बल्कि अलग-अलग समीकरण भी रहे हैं. किसी को जनता ने घर पर बिठा दिया, तो किसी को अपनों की सोची-समझी चुनावी चाल ने.