इत दिल्ली उत आगरो, अलवर और बैराठ | काले पहाड़ सुहावणो, जाके बीच बसे मेवात ||
नू तो सारी जात ही, बसां एक ही साथ | (अपर) मेव घणी तादात में, यूं बाजे मेवात ||


मेवात यानी राजस्थान और हरियाणा के कुछ हिस्सों को मिलाकर बना एक इलाका जहां मेवाती मुसलमान रहते हैं. हरियाणा का नूंह भी इसी का हिस्सा है. बीते 3 दिनों से नूंह में सांप्रदायिकता की आग जलती रही. 6 लोगों की मौत हो चुकी है, कई घायल हैं. सोशल मीडिया के दौर में यहां हर तबका खुद को सही साबित करने में जुटा है. वीडियो क्लिप हैं, बयान है, दावे हैं और दिल्ली में चुनावी नगाड़े भी बज रहे हैं. 


जय श्री राम और अल्लाह हू अकबर के नारों की गूंज से कहीं दूर मेवात का एक इतिहास 188 साल पहले का भी है जो छूट रहा है. नफरत की आग इसे राख में बदल दे उससे पहले इसे जान लेना बेहद जरूरी है. 


कहानी शुरू होती है भारत के पहले स्वतंत्रता संग्राम (1857) से करीब 30 साल पहले. हरियाणा के नूंह की फिरोजपुर झिरका जागीर में उस समय नवाब शम्सुद्दीन खान (1827-1835) का शासन था. जिसे अंग्रेजों से 1803 में शम्सुद्दीन के पिता अहमद बख्श खान को मिली थी. अहमद की मौत के बाद शम्सुद्दीन को जागीर की कमान मिली. लेकिन उसी समय दिल्ली का कमिश्नर विलियम फ्रेजर ने फिरोजपुर झिरका के हर मामलों में दखल देने लगा. शम्सुद्दीन को ये नागवार गुजरा. दुश्मनी बढ़ती चली जा रही थी और साथ में अंग्रेजों की चालाकियां भी. 


अंग्रेजों से सीधी जंग लड़ना जागीर के लिए घाटे का सौदा था. उधर नवाब शम्सुद्दीन विलियम फ्रेजर को निपटाने का फैसला कर चुके थे. जानकर हैरानी होगी इसके लिए रंगाला गांव के रहने वाले एक शॉर्प शूटर करीम खान को चुना गया. इलाके में करीम खान की छवि 'भार मारू' यानी शॉर्प शूटर की थी. 


प्लान के मुताबिक करीम खान अपने एक साथी अन्निया मेव के साथ दिल्ली पहुंच गया. कई दिन की रेकी के बाद 22 मार्च 1835 को रात 11 बजे कमिश्नर विलियम फ्रेजर को उनके घर में करीम खान ने गोली मार दी. 


दिल्ली का कमिश्नर ढेर हो गया था. ब्रिटिश सरकार में हड़कंप मच गया. अपनी साख बचाने के लिए सरकार ने जांच शुरू की और शक की सुई फिरोजपुर झिरका के नवाब शम्सुद्दीन खान की ओर ही मुड़ गई. करीम खान को भी गिरफ्तार कर लिया गया. 3 अक्टूबर 1835 की सुबह दोनों को दिल्ली के कश्मीरी गेट के पास फांसी दे दी गई.


दो मेवातियों की फांसी और फिरोजपुर झिरका जागीर में अंग्रेजों के कब्जे की खबर फैलते ही पूरे इलाके विद्रोह शुरू हो गया. मौलाना अब्दुल खान मेवाती की अगुवाई में हुई बगावत ने अंग्रेज की सरकार के लिए मुश्किलें खड़ी कर दीं. संघर्ष में सैकड़ों मेव मुसलमानों और मेवातियों ने जान दे दी. एक दिन खबर आई कि मौलाना अब्दुल्लाह खान मेवाती ने भी अपनी मिट्टी के लिए सर्वोच्च बलिदान दे दिया है. अंग्रेजों के साथ हुए इस संघर्ष ने मेवात में 1857 की जंग की जमीन तैयार कर दी थी.


नवाब शम्सुद्दीन मेवाती, करीम खान मेवाती और मौलाना अब्दुल्लाह खान मेवाती की फांसी के बाद से मेवात क्रांति की ज्वाला धधक रही थी. 1857 में हुए पहले स्वतंत्रता संग्राम में माहुन के चौपारा गांव के रहने वाले सरफुद्दीन मेवाती ने क्रांति की मशाल थामी और मेवात के कई इलाकों में उन्होंने मेवों का नेतृत्व किया. 


पूरे देश में अंग्रेज सरकार के लिए काम करने वालों के खिलाफ हमले हो रहे थे. सरफुद्दीन ने मेवात इलाके में भी ऐसे लोगों को निशाना बनाना शुरू कर दिया जिसमें पुलिसकर्मी, जमींदार जैसे लोग शामिल थे. सरफुद्दीन ने पिनग्वान और आसपास के इलाके में अंग्रेजों की चूलें हिला दीं. संघर्ष लंबा चला. अंग्रेजों ने धीरे-धीरे इलाके में फिर कब्जा करना शुरू कर दिया. सरफुद्दीन को भी ब्रिटिश सैनिकों ने पकड़ लिया और जनवरी 1858 को फांसी दे दी.


1857 के संघर्ष के दौरान ही सआदत खान मेवाती ने जयपुर के एजेंट मेजर डब्लूएफ ईडन के खिलाफ मोर्चा खोल रखा था. सआदत खान फिरोजपुर झिरका, दोहा और रौली के आसपास अपने संघर्ष का केंद्र बनाया था. जून 1857 की गर्मी में सआदत खान मेवाती ने मेजर ईडन की टुकड़ी को सोहना और तारू के पास रोक लिया था. इन लोगों ने अंग्रेजों की सेना में जमकर मारकाट मचाई. कुछ दिन बाद मेजर ईडन की मदद के लिए फिरोजपुर झिरका से सेना आ गई. दोहा के पास जमकर युद्ध हुआ. सआदत खान मेवाती अपने साथियों के साथ शहीद हो गए.


मजलिस खान मेवाती ने भी फिरोजपुर झिरका में अंग्रेजों के खिलाफ मोर्चा खोल रखा था और ब्रिटिश सरकार के कई सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया. मजलिस खान के निशाने पर वो लोग भी थे जो उस समय अंग्रेज सरकार के पिट्ठू थे. एक रिसर्च के मुताबिक मजलिस खान रेवाणी के महान क्रांतिकारी राव तुलाराम के काफी नजदीक थे.


चौधरी फिरोज शाह मेवाती: 31 अक्टूबर 1857 में अंग्रेजों ने रायसीना गांव में हमला बोल दिया. फिरोज शाह मेवाती को जैसी पता चला उन्होंने सबको इकट्ठा करके सेना के खिलाफ जंग शुरू कर दी. अंग्रेजो की ओर से विग्रम क्लिफोर्ड ने मोर्चा संभाल रखा था. चार घंटे की लड़ाई के दौरान क्लिफोर्ड को गोली मार दी गई. उसकी मौत की खबर सुनते ही अंग्रेजों के खेमे में दहशत फैल गई. फिरोज शाह मेवाती ने इसी तरह अंग्रेजों की नाक में कई दिनों तक दम करके रखा.


सदरुद्दीन मेव: 1857 की जंग पूरे देश में लड़ी जा रही थी. झांसी, कानपुर से अंग्रेजों की मारे जाने की खबरें आ रही थी. मेवात में सरुद्दीन मेव नूंह, महू, टिगांव, पिंनग्वान और रुप्राका इलाके में मोर्चा संभाल रखा था. 19 नवंबर 1857 में रुप्राका पर कैप्टन ड्रोमोंड ने हमला कर दिया. सदरुद्दीन ने 3500 मेवों के साथ मिलकर मोर्चा संभाला और पूरी बहादुरी के साथ लड़े. 


अंग्रेजों की मदद के लिए सेना की एडवांस टुकड़ी भेज दी गई उनके पास आधुनिक हथियार थे. 400 मेवों ने आमने-सामने की लड़ाई में अपनी जान दे दी. 27 नवंबर 1857 को सदरुद्दीन ने पिनग्वान गांव पर हमला बोल दिया.


अंग्रेजों को पहले से ही खबर लग चुकी थी कि मेव किसी बड़े हमले की तैयारी में हैं. पलवल और गुरुग्राम से गोरखा रेजिमेंट की टुकड़ियां भेज दी गईं. माहुन के पास जिस गांव में मेव इकट्ठा थे उस पर ब्रिटिश सेना ने 3 तरफ से गोलाबारी शुरू कर दी. शक्तिशाली सेना से मेव जमकर लोहा ले रहे थे. इस लड़ाई में 289 मेवों की जान जा चुकी थी जिसमें सदरुद्दीन का बेटा भी शामिल था. लेकिन क्रांतिकारी सदरुद्दीन अंग्रेजों के हाथ कभी नहीं आए. इस लड़ाई के बाद उनके बारे में कुछ पता नहीं चल पाया.


अली हसन खान मेवाती : 1857 में मेवात से अंग्रेजी सत्ता को उखाड़ने में फेंकने अली हसन खान ने बड़ी भूमिका निभाई थी. अली हसन ने नूंह, गहेसेरा और आसपास के गांवों में मोर्चा संभाल रखा था. अली हसन की अगुवाई में मेवों ने अंग्रेज सरकार की मदद कर रहे खानजादों और जमींदारों को मिट्टी में मिला दिया. मेवों ने नूंह पर कब्जा कर लिया था और मेवात इलाके से अंग्रेजों के पीछे धकेल दिया.


अली हसन खान मेवाती ने गुरुग्राम के डिप्टी कमिश्नर पर विलियम फोर्ड पर ही सीधा हमला कर दिया. ये लड़ाई घसेरा इलाके में हुई थी. ये हमला इतना जोरदार था कि विलियम फोर्ड को जान बचाकर भागना पड़ गया.  लेफ्टिनेंट ग्रांट और लेफ्टिनेंट रोंगटन की अगुवाई में सेना की एक और टुकड़ी भेजी गई. घसेरा में गांव में फिर युद्ध हुआ. इस बार भी मेव का सामना आधुनिक हथियारों से था. कई क्रांतिकारियों ने शहादत दी. अंग्रेज एक बार फिर जीतने में कामयाब रहे.


भारत का विभाजन और मेव मुसलमान
1857 की क्रांति से लेकर 1947 तक देश और मेवात में बहुत कुछ बदल चुका था. देश में धार्मिक उन्माद की गिरफ्त में था. आजादी और बंटवारे के मुहाने पर खड़े भारत के सामने भयावह हालात थे.  जिस मेवात की धरती पर मेवों ने खून बहाया था वहां से अब वो पाकिस्तान में जाने के लिए मजबूर थे. मोहम्मद अली जिन्ना की मुस्लिम लीग इसमें बड़ी भूमिका निभा रही थी. वाईएमडी कॉलेज नूंह में इतिहास के प्रोफेसर डॉ. अजीज अहमद और सुनील कुमार के लिखे रिसर्च पेपर के मुताबिक  मेवात के बहुत से हिंदू जिसमें बड़ी संख्या में जाट मेवों के पाकिस्तान जाने के फैसले के पक्ष में नहीं थे. 100 सालों से कंधे से कंधा मिलाकर अंग्रेजों से लड़ रहे हिंदुओं के लिए आजादी मेवों के बिना अधूरी थी. जाटों के एक समूह ने पंडित जवाहर लाल नेहरू से मुलाकात कर मेवों की सुरक्षा का आश्वासन भी दिया था.


जाटों ने कहा कि सांप्रदायिक हिंसा में मेवों के खिलाफ जो अत्याचार हुआ है उसमें अलवर, भरतपुर के राजा और गुरुग्राम के बिग्रेडियर का बड़ा हाथ है. इसी बीच चौधरी मोहम्मद यासीन खान ने फैसला किया कि वो मेवों को पाकिस्तान न जाने के लिए समझाएंगे. लेकिन दूसरी तरफ मुस्लिम लीग के एजेंट खान बहादुर मेवों को भड़काने में लगे थे. करीब 8 लाख मेवाती मुसलमानों ने भारत छोड़ने का फैसला कर लिया था.


चौधरी मोहम्मद यासीन खान के कहने पर महात्मा गांधी, विनोबा भावे और कांग्रेस के दूसरे नेता सोहना और दिल्ली बॉर्डर पर लगे मेव मुसलमानों के कैंपो का दौरा भी किया. ये सभी नेता 19 दिसंबर 1947 को गुरुग्राम के घसेरा गांव (अभी नूंह जिले में) भी पहुंचे और मेवों को पाकिस्तान न जाने के लिए मनाया. इसका असर भी हुआ. हजारों मेव मुसलमानों ने भारत में ही रहने का फैसला किया. यहां तक कि जो सीमा पार कर चुके थे वो भी भारत वापस आ गए.


क्या है मेवात इलाका?
हरियाणा और राजस्थान के कुछ हिस्सों को मिलाकर मेवात बनता है. नूंह, मेवात का ही हिस्सा है. राजस्थान के अलवर और भरतपुर के कुछ हिस्से में मेव बहुल इलाके हैं ये भी मेवात में शामिल किए जाते हैं. राजस्थान के तिजारा, किशनगढ़ बास, रामगढ़, अलवर, नगर, पाहरी और हरियाणा के नूंह, तावड़ू, नगीना, फिरोजपुर झिरका, पुनहाना और हथीन इलाके को मिलाकर मेवात कहा जाता है.


कौन हैं मेव मुसलमान
इतिहास के पन्ने और कुछ दस्तावेज खंगालने से पता चलता है कि इस इलाके के राजपूत, मीणा, गुर्जरों ने इस्लाम धर्म अपनाया था जिन्हें मेव मुसलमान कहा जाता है. इनके रीति-रिवाज हिंदुओं से मिलते जुलते हैं. आपको जानकर हैरानी होगी मेव मुसलमानों के अपने रीति-रिवाज हैं इन पर पर्सनल लॉ बोर्ड के कायदे-कानून चलते हैं. मेव मुसलमानों के यहां पिता की मौत हो जाने पर बेटियों को संपत्ति का हिस्सा नहीं मिलता है जबकि सामान्य मुसलमान परिवार में ऐसा होता है. मेवों में दहेज लेने का भी रिवाज है.