Holi 2022: देशभर में होली का त्यौहार अनेक तरह से मनाया जाता है. कहीं पानी तो कहीं गुलाल से होली खेली जाती है और कहीं धुलंडी से लेकर रंगतेरस तक अलग-अलग दिन अलग-अलग जगह होली मनाई जाती है. लेकिन हम बात कर रहे हैं राजस्थान के आदिवासी वागड़ के डूंगरपुर और बांसवाड़ा जिले की खून की होली. खेल के रूप में एक दूसरे पर लोग पत्थर और कण्डों की बरसात करते हैं तो कहीं जलती लकड़ियों की राड़ पर दौड़ लगाते हैं.
पत्थरमार होली मनाने की परंपरा
डूंगरपुर जिले के भीलूड़ा गांव में पत्थरमार होली खेलने की परंपरा है. स्थानीय बोली में राड़ कहा जाता है. पंरपरागत राड़ को देखने गुजरात और मध्प्रदेश के सीमावर्ती गांवों से लोग आते हैं. रोचक आयोजन के लिए शाम में गांव की दो टोलियां आमने सामने एक दूसरे पर पत्थरों की बौछार करती हैं. कार्यक्रम का आयोजन रघुनाथजी मंदिर के पास मैदान में होता है. हजारों दर्शकों की मौजूदगी में दोनों दलों के प्रतिभागी जोश और उत्साह में एक-दूसरे पर पत्थरों की बारिश करते हैं. रस्सी के बने गोफनों से लगभग दो घंटों तक पत्थर बरसते हैं. दोनों दलों के प्रतिभागी परंपरागत ढालों से बचने का प्रयास करते हैं और कई लहुलूहान भी हो जाते हैं. लहुलूहान होने के बाद परंपरागत आयोजन को पूरी श्रद्धा से मनाया जाता है.
भीलूड़ा की पत्थरों की राड़ की तरह कण्डों की राड़ भी सांगवाड़ा उपखंड क्षेत्र का विशेष आयोजन है. धुलेंडी के बाद चार दिनों तक लगातार डूंगरपुर के सागवाड़ा, गलियाकोट क्षेत्र में और होली के दिन बांसवाड़ा के खोडन के गणेश मंदिर परिसर में कण्डों की राड़ का आयोजन होता है. आयोजन में लोग दो दलों में बंटकर एक दूसरे पर कण्डों की बारिश करते हैं. इस दौरान क्षेत्र में बजने वाले ढोल की अनुगूंज दोनों दलों के प्रतिभागियों का हौसला बढ़ाती रहती है. परंपरागत आयोजन में शिरकत करने हजारों की संख्या आती है.
डूंगरपुर के कोकापुर गांव में होलिका पर चलने की परंपरा क्षेत्र का अनोखा आयोजन है. परंपरानुसार सैकड़ों ग्रामीण की मौजूदगी में होलिका दहन के दूसरे दिन अलसुबह कई लोग होलिका दहन स्थल पहुंचते हैं और जलती होली के दहकते अंगारों पर नंगे पांव चलकर प्राचीन मान्यताओं और लोक परम्पराओं का निर्वहन करते हैं. ढोल की थाप के साथ ढूंढ रस्म का आयोजन होता है. ग्रामीण जलते अंगारों पर चलने का शौर्य प्रदर्शन करते हैं.
किला भेदने का भी होता है खेल
डूंगरपुर और बांसवाड़ा के ज्यादातर गांवों में किला भेदने का खेल खेला जाता है. किला भेदने के खेल को स्थानीय बोली में गढ़-भांगना (गढ़ या किला तोड़ना) कहा जाता है. गढ़ राजपूतकालीन किलों को कहा जाता है लेकिन ये गढ़ 100 से 200 व्यक्तियों के गोल घेरे में पास-पास खड़े होकर बनाया जाता है. मानवीय गढ़ को दो या तीन लोगों के कुछ समूह शत्रु बनकर विभिन्न दिशाओं में अलग-अलग आक्रमण कर तोड़़ने की कोशिश करते हैं. इस दौरान घेरे के बाहरी भाग में कुछ लोग धोती को लपेट कर बनाए गए विशेष चाबुकनुमा गोटे के वार से विरोधियों के वार से बचते हैं.