Jammu Kashmir News: जम्मू-कश्मीर और लद्दाख हाईकोर्ट ने माना है कि संपत्ति का अधिकार मानवाधिकार के दायरे में आता है. अदालत ने भारतीय सेना को किराया देने का आदेश दिया है. कुपवाड़ा के याचिकाकर्ता की भूमि पर सेना ने 1978 से कब्जा किया हुआ था. याचिका का निपटारा करते हुए न्यायमूर्ति वसीम सादिक नरगल ने सेना को एक महीने के भीतर पिछले 46 वर्षों में जमा हुए किराए का भुगतान करने का निर्देश दिया.


न्यायमूर्ति ने कहा कि "संपत्ति के अधिकार को अब न केवल संवैधानिक या वैधानिक माना जाता है, बल्कि मानवाधिकार के दायरे में आता है. मानवाधिकारों को व्यक्तिगत अधिकारों जैसे आश्रय, आजीविका, स्वास्थ्य, रोजगार के दायरे में माना जाता रहा है और पिछले कुछ वर्षों में मानवाधिकारों ने बहुआयामी आयाम प्राप्त कर लिया है." 2014 में दायर याचिका के अनुसार, सेना ने तंगधार में अब्दुल मजीद लोन की 1.6 एकड़ जमीन पर कब्जा कर लिया था. उन्होंने जमीन के बदले  मुआवजा या किराया दिलाने की अदालत से गुहार लगाई.


भूमि कब्जे के लिए 46 साल का किराया देगी सेना


अदालत ने कहा, "राज्य अपनी 'प्रमुख डोमेन' की शक्ति का प्रयोग करते हुए किसी व्यक्ति की संपत्ति के अधिकार में हस्तक्षेप कर सकता है, लेकिन यह सार्वजनिक उद्देश्य के लिए होना चाहिए, और इसलिए, उचित मुआवजा दिया जाना चाहिए." केंद्र के वकील ने तर्क दिया कि सेना ने जमीन पर कब्जा नहीं किया है. उन्होंने बताया कि राजस्व विभाग ने 1978 से भूमि पर सेना के कब्जे की पुष्टि की है. अदालत ने संबंधित भूमि के नए सर्वेक्षण का आदेश दिया. राजस्व अधिकारियों की रिपोर्ट के माध्यम से पाया कि भूमि 1978 से सेना के कब्जे में है. आगे कहा कि भूमि के मालिक को कभी कोई किराया या मुआवजा नहीं मिला है. 


हाईकोर्ट ने याचिकाकर्ता के पक्ष में सुनाया फैसला


अदालत ने कहा, "तथ्यों से स्पष्ट पता चलता है कि प्रतिवादियों ने याचिकाकर्ता के मूल अधिकारों का उल्लंघन किया है और कानून के तहत निर्धारित प्रक्रिया का पालन किए बिना संवैधानिक अधिकार से वंचित किया." फैसले में इस बात पर जोर दिया गया कि राज्य और सरकारी एजेंसियां कानून के अनुसार ही किसी नागरिक को संपत्ति से बेदखल कर सकती हैं. अदालत ने कहा, "हालांकि मुआवजा देने का दायित्व अनुच्छेद 300ए में स्पष्ट रूप से शामिल नहीं है, लेकिन इसका अनुमान उक्त अनुच्छेद से लगाया जा सकता है."


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