Kargil Vijay Diwas: कारगिल जंग को खत्म हुए 23 साल हो चुके हैं. देश कारगिल की जंग में मिली जीत का जश्न मना रहा है. एबीपी न्यूज की टीम ने मश्कोह घाटी पहुंचकर लोगों से जंग की यादों को ताजा किया. द्रास से करीब 15 किलोमीटर दूर मश्कोह घाटी में टाइगर हिल की लड़ाई हुई. 70 वर्षीय हाजी यार मोहम्मद खान 1999 की जंग में जवानों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर न सिर्फ लड़ाई लड़ी बल्कि जंग के चश्मदीद भी बने. हाजी यार मोहम्मद कैप्टन विक्रम बत्रा की शहादत तक साथ रहे. उन्होंने टाइगर हिल की लड़ाई सेना के साथ लड़ी और पाकिस्तानी सेना के एक अफसर शेर खान की पूरी कहानी के गवाह भी बने.


हाजी यार मोहम्मद को विजय दिवस के कार्यक्रम का नहीं मिला न्योता 


हाजी यार मोहम्मद पाकिस्तान के सर्वोच्च सैन्य पुरस्कार निशान-ए-हैदर से सम्मानित सैनिक के शव को भी दफनाया. लेकिन हाजी यार मोहम्मद खान को लगता है कि देश उनके बलिदान को भूल गया है. उनकी शिकायत है कि विजय दिवस के कार्यक्रम में शामिल होने का न्योता तक नहीं मिला. हाजी यार मोहम्मद को सबसे ज्यादा दुख मशकों की उपेक्षा को लेकर भी है. उनका कहना है कि मश्कोह ने कारगिल की जंग में सबसे ज्यादा कुर्बादी दी, उसे याद कोई नहीं करता. मशकों में मूलभूत सुविधाओं का घोर अभाव है. घाटी में रहने वाले ब्लॉक डेवलपमेंट काउंसिल सदस्य नूर मोहम्मद के अनुसार सरहद के पास होने के बावजूद भी विकास का फंड नहीं मिला है.


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मश्कोह घाटी में लड़ी गई लड़ाई किसी को भी आज याद नहीं रही


सरहद पर रहनेवाले लोगों को एक्चुअल लाइन ऑफ कंट्रोल रेसीडेंट का सर्टिफिकेट नहीं दिया जा रहा है. सर्टिफिकेट की मदद से नौकरी में आरक्षण और अन्य सुविधाएं मिलती हैं. सरकार की अनदेखी के चलते निवासी बहुत निराश हैं. कारगिल जंग सिफ नाम से कारगिल में लड़ी गयी है लेकिन असली जग मशकों में लड़ी गयी. मश्कोह में लड़ी गई लड़ाई किसी को भी आज याद नहीं है. लोग जम्मू-कश्मीर और कारगिल की तरह इलाके को बॉर्डर टूरिज्म के लिए खोलने की मांग कर रहे हैं ताकि सरकार अगर खुद मदद न करे तो कम से कम पर्यटन के जरिए इलाका का पिछड़ापन दूर हो जाए. 


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