मिशन-2024 की रणनीति को लेकर बीजेपी ने पहला कदम बढ़ा दिया है. लोकसभा की 14 सीटों वाली झारखंड की कमान बाबूलाल मरांडी को सौंपी गई है. संथाल आदिवासी समुदाय से आने वाले मरांडी झारखंड के पहले मुख्यमंत्री रहे हैं. 


2019 में झारखंड की 14 में से 12 सीटों पर बीजेपी गठबंधन ने जीत हासिल की थी. उस वक्त राज्य में रघुबर दास की सरकार थी. हालांकि, लोकसभा चुनाव के कुछ महीने बाद हुए विधानसभा चुनाव में बीजेपी की करारी हार हुई थी. 


खुद मुख्यमंत्री रघुबर दास और प्रदेश अध्यक्ष लक्ष्मण गिलुआ अपनी सीट नहीं बचा पाए थे.  इसके बाद हुए 4 में से 3 उपचुनाव में भी बीजेपी को हार का सामना करना पड़ा. 2024 में बीजेपी ने 14 सीट जीतने का लक्ष्य रखा है.


रघुबर दास और गिलुआ के चुनाव हारने के बाद मरांडी की बीजेपी में घरवापसी हुई थी. 2005 में लालकृष्ण आडवाणी और अर्जुन मुंडा से नाराज होकर मरांडी ने बीजेपी छोड़ दी थी. 


मरांडी को ही क्यों मिली प्रदेश की कमान?
बाबूलाल मरांडी से पहले बीजेपी की कमान दीपक प्रकाश के पास थी. प्रकाश के बाद किसी ओबीसी नेता को ही कमान मिलने की अटकलें थी, लेकिन अंत में बीजेपी ने अपनी रणनीति में बदलाव किया. इसकी बड़ी वजह खतियान आंदोलन है.


हाल ही में राजभवन से हेमंत सरकार के खतियान बिल को वापस कर दिया गया है, जिससे झारखंड के आदिवासी समुदाय में उबाल है. झारखंड में आदिवासी समाज की ओर से 1932 का खतियान लागू करने की मांग लंबे वक्त से की जा रही है. 


मरांडी भी खतियान लागू करने की मांग करते रहे हैं. जानकारों के मुताबिक मरांडी के अध्यक्ष बनने से जेएमएम और कांग्रेस इसे मुद्दे को ज्यादा तुल नहीं दे पाएगी. दूसरी वजह बाबूलाल मरांडी की विधानसभा सदस्यता का है.


2020 में बीजेपी ने मरांडी को विधायक दल का नेता चुना था, लेकिन दल-बदल की वजह से उनकी सदस्यता का मामला विधानसभा स्पीकर के पास है. बीजेपी को इस वजह से 4 साल तक नेता प्रतिपक्ष की कुर्सी भी नहीं मिल पाई.


ऐसे में पार्टी अब मरांडी को अध्यक्ष बनाकर नेता प्रतिपक्ष की कुर्सी किसी और को देने की तैयारी कर रही है. 


नंबर गेम में मरांडी कितने मजबूत?
संथाल परगना से राजनीति की शुरुआत करने वाले बाबूलाल मरांडी की छवि झारखंड की सियासत में एक सुलझे हुए नेता की है. साल 1991 में अविभाजित बिहार के दुमका सीट पर बीजेपी के टिकट से मरांडी मैदान में उतरे, लेकिन जेएमएम के शिबू सोरेन से चुनाव हार गए.


1998 में मरांडी की किस्मत ने पलटी मारी और उन्होंने शिबू सोरेन को चुनाव हरा दिया. मरांडी अटल सरकार में मंत्री बने. साल 2000 में झारखंड जब बिहार से अलग हुआ तो बीजेपी ने उन्हें राज्य का मुख्यमंत्री बनाया. मरांडी ने इसके बाद पूरे राज्य में अपना जनाधार बढ़ाना शुरू कर दिया.


गांव तक पैठ बनाने के लिए हर गांव में स्कूल बनाने की घोषणा मरांडी ने की. पहली बार झारखंड में लड़कियों को पढ़ाई के लिए साइकिल दी गई. हालांकि, मरांडी ज्यादा दिनों तक सत्ता में नहीं रह पाए. 2003 में उनकी जगह अर्जुन मुंडा को मुख्यमंत्री बनाया गया. 


2004 में मरांडी लोकसभा का चुनाव लड़े और बीजेपी के एकमात्र नेता थे, जो चुनाव जीतने में सफल हुए. मरांडी की नजर इसके बाद फिर सीएम कुर्सी पर टिक गई, लेकिन बीजेपी ने अर्जुन मुंडा को ही मुख्यमंत्री बनाने की बात कही. 


2005 में मरांडी अपने ही सरकार के खिलाफ बगावत पर उतर आए. मुंडा सरकार पर सरेआम भ्रष्टाचार के आरोप लगाए. बीजेपी हाईकमान ने स्थिति संभालने के लिए कई नेताओं को दिल्ली से रांची भेजा, लेकिन मरांडी नहीं माने. 


2006 में उन्होंने खुद की पार्टी बना ली, जिसका नाम रखा- झारखंड विकास मोर्चा (प्रजातांत्रिक)


2009 के चुनाव में मरांडी की पार्टी को झारखंड की 81 में से 11 सीटों पर जीत मिली. 2009-2014 तक के लोकसभा चुनाव में बाबूलाल मरांडी की पार्टी को 2 सीटें मिली. मरांडी 2009 में खुद कोडरमा से जीते तो 2011 में जमशेदपुर उपचुनाव में उनके करीबी अजय कुमार को जीत मिली.


2014 के चुनाव में मरांडी की पार्टी को 8 सीटों पर जीत मिली. हालांकि, उनके 6 विधायकों को बीजेपी ने बाद में तोड़ लिया. 2014 के लोकसभा चुनाव में मोदी लहर में जेवीएम को भी नुकसान हुआ, लेकिन पार्टी एक सीट पर दूसरे नंबर पर रही. 


बाबूलाल मरांडी को 12.3% वोट मिले, जो उस वक्त जेएमएम से अधिक था. 2019 के लोकसभा चुनाव में जेवीएम कोडरमा और गोड्डा सीट पर दूसरे नंबर पर रही. दोनों सीटों पर बीजेपी को जीत मिली थी. 


बीजेपी को 14 सीटों पर जीत दिला पाएंगे बाबूलाल?
बाबूलाल की सबसे पहली चुनौती लोकसभा चुनाव 2024 है, जिसमें करीब 9 महीने का वक्त बचा है. बीजेपी गठबंधन को 2019 में 12 सीटें मिली थी, लेकिन उस वक्त विपक्ष कमजोर था. इस बार विपक्ष ने अभी से रणनीति पर काम शुरू कर दी है. 


झारखंड में जेएमएम, आरजेडी, कांग्रेस और जेडीयू के साथ वाम दलों का भी गठबंधन है. सिंहभूम और राजमहल सीट पर पिछले चुनाव में बीजेपी को हार का सामना करना पड़ा था. इन दोनों सीटों के अलावा गोड्डा, दुमका, खूंटी और लोहरदगा सीट भी पार्टी के लिए चुनौती बना हुआ है.


गोड्डा को छोड़कर बाकी 3 सीटों पर हार का मार्जिन काफी कम रहा है, जबकि गोड्डा सीट पर बाबूलाल मरांडी के करीबी रहे प्रदीप यादव चुनाव लड़ने की तैयारी कर रहे हैं. 


बीजेपी की कमजोर कड़ी वाली अधिकांश सीटें संथाल परगना की है, जो मरांडी का मजबूत क्षेत्र माना जाता रहा है. मरांडी के आने से इन क्षेत्रों का समीकरण बन और बिगड़ सकता है.


बीजेपी के लिए यूपीए के यादव, आदिवासी और मुस्लिम गठजोड़ को तोड़ने की भी चुनौती है. तीनों की आबादी करीब 60 प्रतिशत के आसपास है. अगर यूपीए का यह समीकरण हिट हो गया तो बीजेपी को बड़ा नुकसान हो सकता है, इसलिए मरांडी को कमान सौंपी गई है.


मरांडी के पुराने नेताओं से भी अच्छे संबंध हैं. ऐसे में सरयू राय जैसे नेताओं की घरवापसी भी हो सकती है. मरांडी अगर दोनों समीकरणों को साधने में कामयाब हो जाते है तो बीजेपी को चुनाव में बढ़त मिल सकती है. 


राह आसान नहीं, 3 प्वॉइंट्स...


1. गुटबाजी हावी, इसे खत्म करना चुनौतीपूर्ण- झारखंड बीजेपी में बाबूलाल मरांडी से पहले रघुबर दास गुट काफी मजबूत स्थिति में था, लेकिन सरयू राय से अदावत और चुनाव हारने के बाद बैकफुट पर चला गया. हालांकि, दास को बीजेपी ने राष्ट्रीय उपाध्यक्ष का पद दिया हुआ है. 


दास के समर्थक सिंहभूम में काफी मजबूत स्थिति में है. वहीं अन्य जिलों में भी छोटे-छोट गुट सक्रिय है. बीजेपी ने झारखंड में गुटबादी खत्म करने क लिए पहले दिलीप सौकिया को प्रभारी बनाया था और फिर उसके बाद लक्ष्मीकांत वाजपेयी को. 


हाल ही में वसुंधरा राजे को भी बीजेपी ने झारखंड भेजा था. हालांकि, इस सबके बावजूद गुटबाजी जस के तस है. मरांडी अगर पार्टी को जोड़ने में सफल नहीं हो पाते हैं, तो बीजेपी को 2019 में बड़ा झटका लग सकता है.


2. उम्मीदवार पर संशय, कई सांसद बागी हो सकते हैं- 2019 में तय किए गए अधिकांश उम्मीदवारों पर पार्टी के भीतक सर्वसम्मति थी, लेकिन अब ऐसा नहीं है. बाबूलाल मरांडी के बीजेपी में आने से उनके 1-2 करीबियों को भी टिकट मिल सकता है. वहीं कई उम्मीदवारों को परफॉर्मेंस के आधार पर हटाया जा सकता है. 


मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक झारखंड में अगस्त से बीजेपी इसका सर्वे भी कराएगी. वहीं बीजेपी 3 पूर्व मुख्यमंत्रियों को चुनाव लड़वाने की तैयारी में है. चर्चा के मुताबिक जमशेदपुर से रघुबर दास, खूंटी से अर्जुन मुंडा और कोडरमा से बाबूलाल मरांडी चुनाव लड़ सकते हैं.


कुल मिलाकर बीजेपी के नए समीकरण में 4-5 सांसदों का टिकट कट सकता है. ऐसे में इन सांसदों को पार्टी में रोके रखना चुनौतीपूर्ण काम है. 


3. ओबीसी समुदाय को साधना भी आसान नहीं- हेमंत सरकार ने झारखंड में ओबीसी के आरक्षण में बढ़ोतरी की घोषणा की थी, लेकिन बात अब तक बन नहीं पाई है. हेमंत सरकार इसके लिए बीजेपी को दोष दे रही है. बाबूलाल मरांडी के लिए ओबीसी समुदाय को साधना आसान नहीं है.


यादव पहले से आरजेडी के जरिए यूपीए के पाले में है. वहीं आरक्षण के मुद्दे पर अन्य ओबीसी जातियां भी लामबंद हो रही है. बीजेपी के पास पहले रघुबर दास ओबीसी नेता थे, लेकिन उनके झारखंड से जाने के बाद स्थिति और खराब हो गई है. 


इसे ठीक किए बिना मरांडी की आगे की राह आसान नहीं होने वाली है.