Jharkhand Birsa Munda Last Battle: बिरसा मुंडा (Birsa Munda) ने जिस क्रांति का एलान किया था, उसे झारखंड (Jharkhand) की आदिवासी भाषाओं में 'उलगुलान' के नाम से जाना जाता है. 1899 में उलगुलान के दौरान उनके साथ हजारों लोगों ने अपनी भाषा में एक स्वर में कहा था-'दिकू राईज टुन्टू जना-अबु आराईज एटेजना.' इसका अर्थ है, दिकू राज यानी बाहरी राज खत्म हो गया और हम लोगों का अपना राज शुरू हो गया. बिरसा मुंडा ऐसे योद्धा थे, जिन्हें लोग भगवान बिरसा मुंडा के रूप में जानते हैं. बहुत कम लोगों को पता है कि बिरसा मुंडा के उलगुलान से घबराई ब्रिटिश हुकूमत (British Rule) ने खूंटी जिले की डोंबारी बुरू पहाड़ी पर जालियांवाला बाग जैसा बड़ा नरसंहार किया था.


यहां हुई थी भीषण लड़ाई 
खूंटी जिले के जंगलों के बीच डोंबारी बुरू पहाड़ी को सिर्फ पहाड़ कह देना सही नहीं होगा. ये पहाड़ झारखंड की अस्मिता और संघर्ष की गवाह है, ये बिरसा मुंडा और उनके लोगों के बलिदान की कर्मभूमि है. ये वो स्थान है जहां से आने वाली पीढ़ियां प्रेरणा लेंगी. आज ये जगह युवाओं को रोमांचित कर रही है. डोंबारी बुरू पहाड़ी पर ही धरती आबा ने अंग्रेजों के खिलाफ अंतिम लड़ाई लड़ी थी.


उकेरे गए हैं शहीदों के नाम 
डोंबारी बुरू का मतलब होता है पहाड़ पर बना ऊंचा स्तूप. ये पहाड़ मान-स्वाभिमान और आजादी के लिए अंग्रेजों के खिलाफ जंगल-पहाड़ में लड़ी गई वीरगाथा को बयां करता है. यहीं हजारों लोगों ने एक स्वर में कहा था 'दिकू राईज टुन्टू जना-अबु आराईज एटेजना.' इसका अर्थ है, दिकू राज यानी बाहरी राज खत्म हो गया और हम लोगों का अपना राज शुरू हो गया. 9 जनवरी 1900 को अंग्रेजों के खिलाफ बिरसा के उलगुलान के साथ यहां सैकड़ों आदिवासियों ने शहादत दी थी. यहां स्थित परिसर में लगे शिलापट्ट पर संघर्ष में शहादत देने वाले शहीदों के नाम भी उकेरे गए हैं.


तीरों से किया बंदूक और तोप का मुकाबला 
बिरसा मुंडा ने 24 दिसंबर, 1899 को 'उलगुलान' का एलान कर दिया था. घोषणा कर दी गई थी कि जल, जंगल, जमीन पर हमारा हक है, क्योंकि ये हमारा राज है. जनवरी 1900 तक पूरे मुंडा अंचल में उलगुलान की चिंगारी फैल गई. 9 जनवरी, 1900 को हजारों मुंडा तीर-धनुष और परंपरागत हथियारों के साथ डोंबरी बुरू पहाड़ी पर इकट्ठा हुए. इधर गुप्तचरों ने अंग्रेजी पुलिस तक मुंडाओं के इकट्ठा होने की खबर पहले ही पहुंचा दी थी. अंग्रेजों की पुलिस और सेना ने पहाड़ी को चारों ओर से घेर लिया. दोनों पक्षों में भयंकर युद्ध हुआ. हजारों की संख्या में आदिवासी बिरसा के नेतृत्व में लड़े. अंग्रेज बंदूकें और तोप चला रहे थे और बिरसा मुंडा और उनके समर्थक तीर बरसा रहे थे. स्टेट्समैन के 25 जनवरी, 1900 के अंक में छपी खबर के मुताबिक इस लड़ाई में 400 लोग मारे गए थे. कहते हैं कि इस नरसंहार से डोंबारी पहाड़ी खून से रंग गई थी. लाशें बिछ गई थी और शहीदों के खून से डोंबारी पहाड़ी के पास स्थित तजना नदी का पानी लाल हो गया था. इस युद्ध में अंग्रेज जीत तो गए, लेकिन बिरसा मुंडा उनके हाथ नहीं आए थे. 


आने वाली पीढ़ियों के लिए है प्रेरणा 
शिलापट्ट पर अबुआ दिशोम, अबुआ राज के लिए शहीद हुए हाथी राम मुंडा, हाड़ी मुंडा, सिंगरा मुंडा, बंकन मुंडा की पत्नी, मझिया मुंडा की पत्नी, डुंडन मुंडा की पत्नी के नाम लिखे हैं. आज पहाड़ी तक पहुंचने के लिए पक्की सड़क बन चुकी है. कहना गलत नहीं होगा कि डोंबारी बुरू की चढ़ाई से भी ऊंचा बिरसा मुंडा और उनके साथियों का स्थान है. आने वाली पीढ़ियां इस वीरगाथा से प्रेरणा ले रही है.



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