Jharkhand News: झारखंड में कुड़मी जाति को आदिवासी (ST) का दर्जा देने का सवाल एक बार फिर सुलग रहा है. इस जाति-समाज के संगठनों ने आगामी 20 सितंबर से 'रेल टेका, डहर छेका' (रेल रोको-रास्ता रोको) आंदोलन का ऐलान किया है. इन संगठनों का दावा है कि, इस बार आंदोलन में गांव-गांव से आने वाले हजारों लोग रेल पटरियों और सड़कों पर तब तक डटे रहेंगे, जब तक केंद्रीय गृह मंत्रालय और जनजातीय कार्य मंत्रालय कुड़मी को एसटी का दर्जा देने की बात लिखित तौर पर नहीं मान लेता.


दूसरी तरफ आदिवासियों के संगठन कुड़मी जाति की इस मांग पर विरोध जता रहे हैं. आदिवासी संगठनों का कहना है कि कुड़मियों को एसटी का दर्जा देने की मांग आदिवासियों के अस्तित्व पर हमला है.


पिछले साल भी हुआ था आंदोलन


बता दें कि, पिछले साल सितंबर और अप्रैल 2023 में भी कुड़मी संगठनों के हजारों लोगों ने लगातार पांच दिनों तक झारखंड में कई स्टेशनों पर धरना दिया था. इस आंदोलन की वजह से दोनों बार रेलवे को तकरीबन 250 ट्रेनें रद्द करनी पड़ी थीं. हावड़ा-मुंबई रूट सबसे ज्यादा ज्यादा प्रभावित हुआ था. एनएच-49 भी कई दिनों तक जाम रहा था और सैकड़ों गाड़ियां जहां की तहां फंस गई थीं. कुड़मी संगठनों का दावा है कि, इस बार 20 सितंबर से झारखंड के चार मनोहरपुर, नीमडी, गोमो एवं मुरी पर हजारों लोग एक साथ रेल पटरियों पर डेरा डाल देंगे.


इलाके से गुजरने वाले प्रमुख एनएच को भी रोक दिया जाएगा. आदिवासी कुड़मी समाज के केंद्रीय प्रवक्ता हरमोहन महतो ने कहा है कि, इस बार 'रेल टेका, डहर छेका' आंदोलन अभूतपूर्व होगा. इस दौरान झारखंड की खनिज संपदा को बाहर जाने से रोका जायेगा.


रेलवे और रोड जाम करने की तैयारी


इसमें राज्य के गांव-गांव से कुड़मी जाति के स्त्री-पुरुष जुटेंगे. आंदोलन को अनिश्चित काल तक जारी रखने की तैयारी के तहत गांव-गांव में एक मुट्ठी चावल और यथासंभव चंदा जुटाने की मुहिम चलाई गई है. दरअसल झारखंड में रहने वाले कुड़मी जाति के लोगों का दावा है कि 1931 तक मुंडा, मुंडारी, संथाली आदि के साथ कुड़मी भी आदिम जनजाति (प्रिमिटिव ट्राइब) की सूची में शामिल थे. देश आजाद होने के बाद छह सितंबर, 1950 को जब संसद में जनजातियों की सूची प्रस्तुत की गई, तो उसमें कुड़मी नहीं थे. इसका लोकसभा में उपस्थित 15 सांसदों ने विरोध किया था.


कुड़मी समाज के नेताओं का कहना है कि एक साजिश के तहत इसे आदिवासी की सूची से हटाया गया. कुड़मी जाति की परंपराओं पर शोध करने वाले प्रसेनजीत महतो काछुआर अपने एक लेख में लिखते हैं कि, छोटानागपुर के पठार और इसके आस-पास के क्षेत्रों में आदि काल से रहते आए कुड़मी बिहार और दूसरे राज्यों की कुर्मी जाति से अलग हैं. कुड़मी आदिवासियों की पारम्परिक सामाजिक शासन व्यवस्था कस्टमरी लॉ से संचालित-शासित होते रहे हैं.


अर्जुन मुंडा ने किया था ये वादा


वह एच एच रिजले की पुस्तक ‘कास्ट्स एंड ट्राइब्स ऑफ बंगाल’ का हवाला देते हुए लिखते हैं कि, छोटानागपुर के कुड़मी बिहार के कुर्मियों से अलग द्रविड़ नस्ल के आदिवासी समुदाय हैं. वह सर ग्रियर्सन की पुस्तक “लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ इंडिया” का भी हवाला देते हैं. उनके मुताबिक ग्रियर्सन ने साफ लिखा है कि छोटानागपुर के कुड़मी और बिहार के कुर्मी, दोनों को अंग्रेजी में ‘KURMI’ लिखा गया, लेकिन छोटानागपुर की कुड़मी जाति जनजाति परंपराओं से संचालित होती है.


ऐसे ही उदाहरण देते हुए आदिवासी कुड़मी समाज के केंद्रीय प्रवक्ता हरमोहन महतो कहते हैं कि आदिवासियत हमारी ऐतिहासिक पहचान और अस्मिता का सवाल है. हम इस पहचान को वापस लेकर रहेंगे. उनका कहना है कि अर्जुन मुंडा जब 2004 में राज्य के मुख्यमंत्री थे, तब उन्होंने ही कुड़मी जाति को आदिवासी बनाने की अनुशंसा केंद्र सरकार से की थी


विशेष सत्र में उठ सकती है ये मांग 


अब जबकि वह केंद्र में जनजातीय मामले के मंत्री हैं, तो इस मामले में राज्यों से टीआरआई (ट्राइबल रिसर्च इंस्टीट्यूट) की रिपोर्ट मांग रहे हैं. केंद्र सरकार टीआरआई रिपोर्ट के नाम पर हमें उलझाना चाहती है. इस बार हम किसी के झांसे में नहीं आने वाले हैं. कुड़मी को आदिवासी का दर्जा देने की मांग संसद के अलावा झारखंड और बंगाल की विधान सभाओं में भी उठाई जाती रही है.


बंगाल के सांसद अधीर रंजन चौधरी कई बार लोकसभा में यह मुद्दा रख चुके हैं. जमशेदपुर से सांसद रहे सुनील महतो, जमशेदपुर की पूर्व सांसद आभा महतो संसद में इसे लेकर समय-समय पर सवाल उठाते रहे हैं. आदिवासी कुड़मी समाज के राजेश महतो कहते हैं कि 18 से 20 सितंबर तक विशेष सत्र होना है. हमारे संगठन ने कुड़मी जाति से आने वाले सांसद विद्युत वरण महतो, सांसद चंद्रप्रकाश चौधरी, राज्यसभा सांसद ममता कुमारी और महतो से अपील है कि वे सत्र में कुड़मी समाज की इस मांग को फिर से उठाएं.


दूसरी तरफ कुड़मियों की इस मांग पर आदिवासी समाज को सख्त ऐतराज है. यूनाइटेड फोरम ऑफ ऑल आदिवासी ऑर्गेनाइजेशन (यूएफएएओ) के नेता बंगाल निवासी सिद्धांत माडी का कहना है कि कुड़मियों की यह मांग आदिवासियों की पहचान पर हमला है. कुड़मी परंपरागत तौर पर हिंदू हैं और वे गलत आधार पर आदिवासी दर्जे के लिए सरकार पर दबाव बना रहे हैं. झारखंड की पूर्व गीताश्री उरांव ने पिछले दिनों आदिवासियों की एक रैली को संबोधित करते हुए कहा था कि, कुड़मी समाज की नजर अब आदिवासियों की जमीन-जायदाद पर टिकी है. उनकी मंशा आदिवासियों के लिए सुरक्षित संवैधानिक पदों को हाईजेक करने की है. इसे आदिवासी समाज कतई बर्दाश्त नहीं करेगा. अपने हक-अधिकार और अस्तित्व की रक्षा के लिए समस्त आदिवासियों का एकजुट रहना होगा.



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