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झारखंड में लाशों के मसीहा के रूप में जाने जाते हैं मोहम्मद खालिद, ये बात करती है बेचैन

Jharkhand News: झारखंड के मोहम्मद खालिद (Mohammad Khalid) और तापस चक्रवर्ती को लोग लाशों के मसीहा के रूप में जानते हैं. दोनों की दोस्ती की लोग मिसालें देते हैं.

Jharkhand Mohammad Khalid and Tapas Chakraborty: करीब 20 साल पहले झारखंड (Jharkhand) के हजारीबाग (Hazaribagh) में हुई एक घटना ने मोहम्मद खालिद (Mohammad Khalid) की जिंदगी बदलकर रख दी. एक विक्षिप्त महिला ने सड़क के किनारे दम तोड़ दिया. उसकी लाश (Dead Body) घंटों वहीं पड़ी रही. लोग सड़क के सामने से गुजरते रहे लेकिन किसी ने परवाह नहीं की. सड़क से गुजरते इन्हीं राहगीरों में एक मोहम्मद खालिद भी थे, जो लाश की दुर्गति देखकर बेचैन हो उठे. उन्होंने किसी तरह एक ठेले का जुगाड़ किया, सामने से गुजरते लोगों से गुहार लगाई तो एक ने हिम्मत करते हुए लाश उठाकर ठेले पर रखने में उनकी मदद की. उन्होंने पास की दुकान से कफन और अंतिम संस्कार का सामान खरीदा. लाश को अकेले श्मशान ले जाकर सम्मान के साथ मुखाग्नि दी. इस घटना ने मोहम्मद खालिद की जिंदगी का मकसद बदल दिया. उन्होंने संकल्प लिया कि वो ऐसी किसी भी लावारिस लाश की दुर्गति नहीं होने देंगे. 

ये हैं लाशों के मसीह
कुछ महीने बाद ही उनकी इस मुहिम में उनके दोस्त हजारीबाग के मशहूर सेंट कोलंबस कॉलेज में डेमोंस्ट्रेटर के रूप में काम करने वाले तापस चक्रवर्ती (Tapas Chakraborty) भी जुड़ गए. गिनती तो नहीं की है, लेकिन इन दोस्तों की जोड़ी लगभग 5 से 6 हजार लाशों को सम्मानपूर्वक अंतिम संस्कार का हक दिला चुकी है. कोरोना संक्रमण के दौर में जब अपने कहे जाने वाले तमाम रिश्ते भी बेगाने हो गए थे, तब मोहम्मद खालिद और तापस चक्रवर्ती ने दिन-रात देखे बगैर, खुद की जिंदगी खतरे में डालकर हजारीबाग से लेकर रांची तक तकरीबन 500 शवों का अंतिम संस्कार किया. लोग इन दोनों को पूरे झारखंड में लाशों के मसीहा के रूप में जानते हैं. 


झारखंड में लाशों के मसीहा के रूप में जाने जाते हैं मोहम्मद खालिद, ये बात करती है बेचैन

प्रेरित हुए लोग 
झारखंड के सबसे बड़े अस्पताल रिम्स में 2010 में मॉर्चुरी लावारिस लाशों से पूरी तरह भर गई थी. लाशें सड़ने लगी थीं और बदबू पूरे परिसर में फैलने लगी थी. प्रशासन को भी कोई उपाय नहीं दिख रहा था. ये खबर जब मोहम्मद खालिद और तापस चक्रवर्ती तक पहुंची तो दोनों रांची आए और सभी लाशों के सामूहिक अंतिम संस्कार का बीड़ा उठाया. दोनों ने एक साथ लगभग 150 लाशों का अंतिम संस्कार कराया. इसके बाद वर्ष 2016 तक रिम्स में लावारिस लाशों के अंतिम संस्कार का जिम्मा यही दोनों संभालते रहे. इन दोनों को देखकर रांची में कई लोग प्रेरित हुए और मुक्ति नाम की एक संस्था बनी, जिसने 2016 के बाद से ये जिम्मा उठा रखा है. 

शवों को दिलाया आखिरी हक
कोरोना संक्रमण की पहली और दूसरी लहर के समय जब रांची में शवों के अंतिम संस्कार को लेकर चुनौती खड़ी हुई, तब फिर से मसीहा बनकर खड़े हुए मोहम्मद खालिद. यहां विद्युत चालित शवदाह गृह की मशीन खराब हो गई थी और इसे चलाने वाले भाग खड़े हुए थे. तब मोहम्मद खालिद ने अकेले दम पर मोर्चा संभाला. उन्होंने 15 दिनों में यहां कोविड से मरने वाले 96 लोगों का अंतिम संस्कार किया. हजारीबाग और रांची के अलावा चतरा और रामगढ़ तक जाकर उन्होंने कई लावारिस लाशों को उनका आखिरी हक दिलाया है. 


झारखंड में लाशों के मसीहा के रूप में जाने जाते हैं मोहम्मद खालिद, ये बात करती है बेचैन

करते हैं ये काम 
मोहम्मद खालिद और तापस चक्रवर्ती सिर्फ लावारिस लाशों का अंतिम संस्कार ही नहीं करते, बल्कि अगर मरने वाला हिंदू हुआ तो उनके अस्थि शेष को साल में एक या दो बार बनारस ले जाकर गंगा में प्रवाहित करते हैं. प्रशासन और स्थानीय दाताओं ने अब इन्हें 2 गाड़ियां भी उपलब्ध कराई हैं, जिनसे लाशों को श्मशान-कब्रिस्तान तक ले जाने में सहूलियत होती है. कुछ और लोग हैं जो अब इस मुहिम में उनके साथ जुड़े हैं. उन्होंने मुर्दा कल्याण समिति नाम की एक संस्था बनाई है. 

इस घटना ने किया बेचैन 
कोरोना काल में जब खून के रिश्ते वाले भी मरने वालों से किनारा कर लेते थे, तब लाशों का अंतिम संस्कार करते हुए क्या आप कभी विचलित नहीं हुए? इस सवाल पर मोहम्मद खालिद कहते हैं कि ये दौर ही ऐसा था, जब हमें दिल पर पत्थर रखकर दिन-रात ये काम करना था. हमने इसे ही अपना सबसा बड़ा धर्म माना. वो बताते हैं कि एक बार उनका कलेजा तब दहल उठा, जब कोरोना संक्रमित एक महिला के निधन के बाद उनके पति स्ट्रेचर को छूना चाहते थे, लेकिन उनके जवान बेटे ने पिता को धमकी दी कि अगर वो ऐसा करते हैं तो उन्हें घर से बाहर निकाल देगा. मोहम्मद खालिद कहते हैं कि ये खुदगर्जी थी या उनकी मजबूरी, नहीं जानता लेकिन इस घटना ने उन्हें बहुत बेचैन किया.


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दोस्ती की मिसाल देते हैं लोग 
मोहम्मद खालिद और तापस चक्रवर्ती ने 2015 में हजारीबाग शहर में एक और मुहिम शुरू की. भूखों और जरूरतमंदों के लिए एक रोटी बैंक बनाया है, जहां लोग अपने घरों से रोटियां और भोजन खुद पहुंचाते हैं. फिर ये खाना भिखारियों, गरीबों की बस्तियों और अस्पताल में मरीजों के जरूरतमंद परिजनों के बीच बांटा जाता है. पिछले 6 सालों से ये अभियान निरंतर जारी है. अब लोग शादी-विवाह, जन्मदिन आदि विभिन्न अवसरों पर रोटी बैंक को भोजन उपलब्ध कराते हैं और फिर ये जरूरतमंदों तक पहुंच जाता है. तापस चक्रवर्ती अब कॉलेज से रिटायर हो चुके हैं और मोहम्मद खालिद ने अपने पैथोलॉजी सेंटर का काम परिजनों को सौंप दिया है. इन दोनों का पूरा वक्त अब लाशों के सम्मानपूर्वक अंतिम संस्कार और जरूरतमंदों तक रोटी पहुंचाने के अभियान में ही गुजरता है. दोनों की दोस्ती की लोग मिसालें देते हैं. 

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