कानपुर, एबीपी गंगा। रोशनी के पर्व दीपावली में अब कुछ ही वक्त रह गया है. आम से लेकर खास तक सभी लोग इस दिन का बेसब्री से इंतजार कर रहे हैं. वहीं, दीवाली की बात हो और मिट्टी के दीयों का जिक्र न हो तो ये बात अधूरी सी रह जाती है.


मिट्टी के दीये बनाकर दूसरों का घर रोशन करने वाले कुम्हार आज भी उपेक्षा और गरीबी के शिकार हैं. इन कुम्हारों की दुर्दशा और बदहाली देखकर वो कहावत याद आ जाती है कि दीये तले अंधेरा.

सुबह से हलचल
कानपुर की कुम्हार बस्ती में इन दिनों सुबह से ही अच्छी खासी हलचल देखी जा सकती है. सुबह से इन कुम्हारों के चाक बेजान गीली मिट्टी को नया रूप देते नजर आते हैं. दीपावली पर दो पैसे मिलने की चाह में कुम्हारों का यह चाक समय के चक्र की तह निरंतर चला करता है.


अबकी बार इन कुम्हारों को पूरी उम्मीद है कि इस बार का यह दीपावली पर्व इनके लिए खुशियों की रोशनी लेकर आएगा और उनकी बिक्री बढ़ेगी. आप को बता दें कि कानपुर में आज भी सैंकड़ों परिवार हैं, जो इन छोटी-छोटी बस्तियों में रह कर इस कारोबार से अपने परिवार का पालन पोषण करते हैं.


इलेक्ट्रिक दीयों ने ली जगह
हालांकि, आधुनिकता के इस युग में पारम्परिक दीयों की जगह रोशनी से सराबोर इलेक्ट्रिक दीए और मशीनों से बनी मोमबत्तियों ने ले ली है. जिसकी वजह से यह कारोबार अब खतरे और संकट में है.


गौरतलब है कि सरकारों की ओर से समय- समय पर मिलने वाले प्रोत्साहन से अब इन कुम्हारों मे भी उम्मीद की किरण जल उठी है. बेजान मिट्टी में जान भरने वाले यह मिट्टी के लाल दिन-रात पूरे परिवार के साथ दीये, लक्ष्मी गणेश की प्रतिमाओं को अंतिम रूप देने में जुटे हैं.


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