मध्य प्रदेश में विधानसभा चुनाव होने में अब गिनती के 250 दिन बचे हैं, लेकिन सियासी तपिश अभी से बढ़ने लगी है. राजनेताओं के साथ ही साधु-संत भी अपने-अपने इलाकों में सक्रिय हो गए है. पिछले दिनों राज्य कांग्रेस के प्रमुख कमलनाथ और बागेश्वर धाम के धीरेंद्र शास्त्री के बीच हुई मुलाकात सुर्खियों में है. 


मुलाकात को भले कमलनाथ औपचारिक बता रहे हों, लेकिन हिंदुत्व और राजनीति की कॉकटेल वाली मध्य प्रदेश की सियासत में बाबाओं और नेताओं का गठजोड़ पुराना है. साधु-संत पहले जमीन पर पकड़ बनाते हैं और फिर धर्म का तड़का लगाकर नेताओं को कुर्सी तक पहुंचाते हैं. कुर्सी पर पहुंचने के बाद राजनेता भी इस कर्ज को बखूबी अदा करते हैं.


कथावाचक उमा भारती के सियासी उदय के बाद मध्य प्रदेश की राजनीति में संत भी खुद सक्रिय होने लगे. इनमें कम्प्यूटर बाबा, भैय्यूजी महाराज, हरिहरनंद जी महाराज आदि शामिल हैं. हाल ही में बागेश्वर सरकार के दरबार में भी नेताओं का आना-जाना तेज हो गया है, जिसके बाद उनके सियासी करियर को लेकर भी चर्चा शुरू हो गई है.


ऐसे में सवाल उठता है कि मध्य प्रदेश की सियासत में साधु-संत क्यों सक्रिय होते हैं और इनका बोलबाला कैसे बढ़ता जाता है? आइए इस स्टोरी में विस्तार से जानते हैं...


सत्ता के लिए साधु-संत क्यों जरूरी?
1. माहौल बनाने का काम करते हैं- अधिकांश कथा वाचक या साधु-संत फर्राटेदार बोलते हैं. ऐसे में वे चुनावी साल में राजनीतिक दलों के लिए माहौल बनाने का काम करते हैं. कम्प्यूटर बाबा पहले बीजेपी की शिवराज सरकार के पक्ष में माहौल बना रहे थे, लेकिन आश्रम पर छापे पड़ने के बाद घूम-घूमकर सरकार के विरोध में बयान दे रहे हैं.


चुनावी सालों में राजनीतिक दलों को ऐसे लोगों की विशेष जरूरत होती है, जो किसी मुद्दे पर जनता के बीच माहौल तैयार करें. साधु-संत इस काम को बखूबी से अंजाम देते हैं, जिस वजह से राजनीतिक दलों को संतों खूब भाते हैं.


2018 में नर्मदा और क्षिप्रा सफाई को संतों ने ही मुद्दा बनाया था, जिसका उज्जैन, भोपाल, नर्मदापुरम आदि जिलों में खूब असर हुआ. महाकौशल प्रांत में बीजेपी को नुकसान का भी सामना करना पड़ा था. 


2. कथा के जरिए जमीनी प्रचार- बुंदेलखंड, निमाड़ और मालवा भाग में कथा का बहुत ही ज्यादा प्रचलन है. ऐसे में इन इलाकों में जो पॉपुलर कथावाचक होते हैं, राजनेता उन्हें बुलाकर कथा करवाते हैं. 


भागवत कथा के दौरान कथावाचक नेताओं का खूब गुणगान करते हैं, जिससे लोगों के बीच बढ़िया प्रचार हो जाता है. इतना ही नहीं, कई संत नेताओं को पार्टी का टिकट दिलाने में भी मदद करते हैं. सत्ता में आने के बाद नेता भी संतों और कथावाचकों का कर्ज उतारने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ते हैं.  


3. समर्थकों से वोट की अपील- एक रिपोर्ट के मुताबिक मध्य प्रदेश की 230 में 100 विधानसभा सीटें ऐसी है, जहां किसी न किसी संत और आश्रम का प्रभाव है. ऐसे में चुनावी साल में सत्ता के लिए ये सभी संत और आश्रम नेताओं के लिए जरूरी हो जाते हैं.


कई बार संत सीधे तौर पर वोटरों से किसी पार्टी के पक्ष में वोट करने की अपील करते हैं, तो कई बार अंदरूनी तौर पर संदेश भेज देते हैं. दोनों ही सूरत में राजनीतिक दलों को फायदा होता है. 


करीबी मुकाबलों में संतों की भूमिका और ज्यादा बढ़ जाती है. हर चुनाव में 30-40 सीटें ऐसी रहती है, जहां जीत का मार्जिन 5-10 हजार के बीच रहता है.


4. रक्षा कवच के रूप में भी काम करते हैं संत- एमपी सियासत में संत सिर्फ में वोट देने और दिलाने का ही काम नहीं करते हैं. कई बार नेताओं के लिए रक्षा कवच की भी भूमिका निभाते हैं. दिवंगत शंकराचार्य स्वरूपानंद सरस्वती कई मौकों पर हिंदुत्व के खिलाफ विवादित बयान देने वाले दिग्विजय सिंह का सार्वजनिक बचाव कर चुके हैं.


इतना ही नहीं, 2019 में दिग्विजय सिंह जब भोपाल लोकसभा सीट से चुनाव लड़ रहे थे तो उनके समर्थन में हजारों संत सड़कों पर उतर आए. बीजेपी ने प्रज्ञा ठाकुर को उतारकर दिग्विजय सिंह को हिंदू विरोधी बताया था. 


कहानी संतों और कथावाचकों की, जो पॉलिटिकल गेम के हैं बड़े खिलाड़ी


उमा भारती- 1970 के दशक में भागवत कथा के जरिए बुंदेलखंड में मशहूर हो चुकीं उमा भारती ने 1984 में सियासत का दामन थाम लिया. 1984 के चुनाव में भारती को सफलता नहीं मिली, लेकिन 1989 में खजुराहो सीट से वे जीत कर संसद पहुंच गई. 


इसके बाद उमा भारती बीजेपी के भीतर हिंदुत्व की फायर ब्रांड नेता बनकर उभरीं. 2003 में दिग्विजय सिंह की सरकार जाने के बाद बीजेपी ने उमा भारती को मुख्यमंत्री बनाया. 2004 के बाद कुछ सालों तक भारती सियासी नेपृथ्य में जरूर रहीं, लेकिन 2014 में फिर केंद्र में मंत्री बन गईं.




उमा भारत अभी भी पॉलिटिक्स में सक्रिय हैं और बुंदेलखंड के इलाकों में लगातार दौरा कर रही हैं. मध्य प्रदेश के करीब 50 विधानसभा सीटों पर उमा भारती की सीधी पकड़ है.


शिवराज सिंह चौहान पर कई बार उमा भारती तल्ख टिप्पणी कर चुकी हैं, लेकिन फिर भी पार्टी उन पर कोई कार्रवाई नहीं करती है. वजह उनकी सियासी ताकत है.


कम्प्यूटर बाबा- नामदेव दास त्यागी उर्फ कम्प्यूटर बाबा 2014 में सियासी सुर्खियों में आए. आम आदमी पार्टी के टिकट पर कम्प्यूटर बाबा ने चुनाव लड़ने का ऐलान कर दिया. हालांकि, बाद में वे चुनाव नहीं लड़े.


2016 में सिंहस्थ महाकुंभ के दौरान कम्प्यूटर बाबा हेलिकॉप्टर पर घुमने और लैपटॉप यूज करने को लेकर चर्चा में आए थे. गैजेट के जरिए कम्प्यूटर बाबा अपने समर्थकों को संदेश भेजते हैं. 




2018 में बाबा ने नर्मदा बचाओ यात्रा शुरू करने का ऐलान कर दिया. बाबा के ऐलान के तुरंत बाद शिवराज सिंह चौहान ने उस वक्त बाबा और उनके शिष्य को मंत्री पद का दर्जा दे दिया. मंत्री पद मिलने के बावजूद बाबा नहीं माने और कांग्रेस का प्रचार करने लगे. 


2018 में कमलनाथ सरकार बनने के बाद बाबा को नर्मदा और क्षिप्रा ट्रस्ट का चेयरमैन बनाया गया. 2019 में कम्प्यूटर बाबा ने कांग्रेस में पक्ष में जमकर प्रचार किया. हालांकि, सरकार जाने के बाद उनके आश्रम से अवैध कब्जा हटाने के नाम पर शिवराज प्रशासन ने कार्रवाई भी की. बाबा एक बार फिर चुनाव से पहले मुखर हैं.


धीरेंद्र शास्त्री- हाल में राष्ट्रीय मीडिया की सुर्खियों में आए धीरेंद्र शास्त्री उर्फ बागेश्वर सरकार का भी सियासी रसूख कम नहीं है. बागेश्वर धाम पिछले कुछ सालों में खूब लोकप्रिय हुआ है और इसका नतीजा यह है कि शास्त्री के दरबार में सभी दलों के राजनेता भी हाजिरी लगा रहे हैं. 
 
एक रिपोर्ट के मुताबिक बागेश्वर धाम में रोजाना 2-3 लाख भक्त आते हैं. मंगलवार को इनकी संख्या 5 लाख के आसपास रहती हैं. सोशल मीडिया पर यूट्यूब और फेसबुक मिलाकर बागेश्वर सरकार 13 करोड़ व्यूज हैं.




दरबार में कमलनाथ, नरोत्तम मिश्रा, अरुण यादव जैसे कद्दावर नेता भी आ चुके हैं. बागेश्वर महाराज मंच से हिंदू राष्ट्र बनाने की भी बात कह चुके हैं. हालांकि, राजनीति में सीधे तौर पर नहीं आने की बात भी कहते हैं.


बागेश्वर धाम के लाखों समर्थक होने की वजह सभी पार्टियां परिक्रमा करने में जुट गई हैं. छत्तरपुर और बुंदेलखंड के इलाके में बागेश्वर सरकार की सियासी पकड़ भी है. ऐसे में चुनाव में बागेश्वर सरकार का समर्थन की उम्मीद सभी पार्टियां कर रही हैं.