Reporter Diary: भोपाल के कमला नेहरू अस्पताल में उस दिन मेरी इमरजेंसी ड्यूटी थी. तीसरी मंजिल पर ही बच्चों के दो वार्ड आमने सामने थे. एक न्यू बोर्न केयर यूनिट (एसएनसीयू) जिसमें 28 दिन से कम के वो बच्चे रखे जाते हैं जो पैदा होते ही किसी बीमारी का शिकार हो जाते हैं, और दूसरा वार्ड पीडियाट्रिक इंटेंसिव केयर यूनिट (पीआईसीयू) है जिसमें 28 दिन से बड़ी उमर के बच्चे होते हैं. मेरी ड्यूटी पीआईसीयू में थी और रात के तकरीबन पौने नौ बजने को थे. मैं अपने वार्ड में भर्ती कुछ बच्चों के पर्चे पलट रहा था कि बाहर अचानक अफरा तफरी और शोर सुनाई दिया. शोर सुनकर मैं सारे काम छोड़ बाहर आया. बाहर का नजारा देख मेरे होश उड़ गये. सामने की एसएनसीयू से धुआं निकल रहा था और एक वार्ड ब्वाय आग बुझाने के टेंडर उठाकर ला रहा था. दूसरा आग बुझाने के दौरान उपयोग में आने वाला पानी का पाइप खींच रहा था. किसी की समझ में कुछ नहीं आ रहा था कि करना क्या है. उधर बच्चों के वार्ड में से निकलने वाला धुआं लगातार बढ़ता ही जा रहा था.


मैंने बदहवासी में वहां खड़े अपने साथी डॉक्टर से पूछा कि ये आग कैसे लगी और बच्चे कहां हैं. मारे धुआं के खांसते हुए डॉक्टर साथी कुछ बोल तो नहीं पाए मगर हाथ के इशारे से बताया कि बच्चे अंदर ही हैं. अब मुझे काटो तो जैसे खून नहीं. इस दुनिया में कुछ दिन पहले आंख खोलनवाले और सांस लेने के लिए मेडिकल उपकरण पर निर्भर नन्हे मासूम धुयें में कैसे रह पा रहे होंगे. जाने क्या मुझे सूझी, मैंने अपना मास्क नाक पर लगाया और वार्ड में घुस गया. अंदर का नजारा और भी भयावह था. हर तरफ अंधेरा ही अंधेरा, वार्ड के कोने में वेंटिलेटर में लगी आग के धुएं से अंधेरा छाता जा रहा था. वार्ड की लाइट से कुछ दिखाई नहीं दे रहा था. उधर वार्मर पोर्ट पर बच्चे अब तक रखे हुये थे. उनके इलाज देकर स्वस्थ करने की जिम्मेदारी हमारी थी. मुझे तुरंत लगा कि इन बच्चों को यहां से हटाना पड़ेगा. 




वार्ड में इक्के दुक्के डॉक्टर और नर्सिंग स्टाफ बच्चों को लगी हुयी आईवी हटाकर उठाने भी लगे थे. मुझे भी लगा समय कम है जो करना है जल्दी करना होगा. मेरे सामने वार्मर पोर्ट दिखा, उसमें लेटे बच्चों की आईवी हटाई और चार बच्चे दोनों हाथों से उठा लिये. ये मासूम नींद में ही थे. उनको नहीं मालूम कि उनकी जान पर क्या आफत आ गयी है. इन बच्चों को लेकर मैंने दूसरे वार्ड के पलंग पर रख दिया. जहां एक दो बच्चे उसी वार्ड से लाकर रखे गये थे. तुरंत मैं पलटा और फिर गहरी सांस लेकर धुयें वाले वार्ड में घुस गया. अब नयी मुसीबत ये आई थी कि शॉर्ट सर्किट के कारण एसएनसीयू की लाइट भी चली गयी और अंदर कुछ भी नहीं दिख रहा था. प्लास्टिक का जहरीला धुआं तेजी से लगातार बढ़ता जा रहा था. मैंने जल्दी अपना मोबाइल निकाला और उसकी टार्च आन की और सामने दिख रहे पोर्ट से फिर चार बच्चों को उठाने के बाद वार्ड से निकल सामने के वार्ड के पलंग पर रख दिया. 


तब मैंने देखा मेरे साथ लेडी डॉक्टर भी घुप्प अंधेरे वार्ड से बच्चों की नाक और हाथों से आईवी निकालकर बाहर ला रही हैं. उस वार्ड में चालीस नवजात रखे गए थे. अंधेरे कमरे में  धुआं के कारण कोई भी ज्यादा देर तक ठहर नहीं पा रहा था. हम सब थोड़ी थोड़ी देर में खांसते हुये बाहर आते और फिर गहरी सांस लेकर एसएनसीयू में वैसे ही घुसते थे जैसे पानी में डुबकी लगाने के पहले कुछ लोग खूब सांस भर कर उतरते हैं. ये वार्ड हमारा इतना जाना पहचाना था कि हममें से अधिकतर को मालूम था कि वार्ड में कहां क्या है क्या रखा है. हमारा अंदाजा काम आ रहा था. बच्चों को धुयें वाले अंधेरे कमरे से बाहर निकालने का काम इतनी तेजी से हो रहा था कि कई बार हम आपस में टकरा भी रहे थे. वार्ड में जब गाढ़ा जहरीला धुआं छत की ओर छा गया तो फिर मैंने पंजों के बल नीचे झुककर भी देखा कि किसी पोर्ट में कोई बच्चा बचा तो नहीं. इस दौरान मैं उस जलते हुये वेंटिलेटर के पास भी पहुंच गया. वहां आग तो बुझ गयी थी मगर धुआं उठ रहा था. वेंटिलेटर के पास वाले पोर्ट से जब मैंने एक बच्चे को उठाया तो मारे गर्मी के उठा ना सका. मगर उस नवजात के गरम शरीर ने मुझे अंदर तक ठंडा कर दिया. बच्चा मर चुका था. मैं उलझन में था कि उसे ले जाऊं या नहीं. जाने क्या हुआ मुझे, मैंने पास की चादर खींची और उसे लपेट कर बाहर ले आया. 


बीस मिनट की मशक्कत के बाद अब तक हम तकरीबन सभी बच्चों को निकाल चुके थे. सामने के वार्ड में एक साथ दो पलंग पर लिटाकर बच्चों को फिर आईवी लगायी जा रही थी. उनके शरीर से धुएं को नर्म रुई के जरिए पोंछा जा रहा था. अब तक मंत्री विश्वास सारंग और हमारे सुपरिटेंडेंट भी आ गये थे. सब कुछ उनकी देखरेख में हो रहा था. बाहर आग लगने की खबर फैलने के साथ ही बच्चों के परिजनों ने आपा खो दिया. हम सब डाक्टर निढाल हो गये थे. आंखें धुआं से लाल हो गयी थीं. हर कोई खांस रहा था, हाथों में काले पन की परत चढ गयी थी. हमारे सफेद अप्रिन काले पड गये थे, मास्क का पता नहीं था. इसके बावजूद तमाम परेशानियों से बढ़कर चेहरे पर संतोष चमक रहा था कि हमने उन नौनिहालों को आग और धुएं से बचा लिया जो हमारे भरोसे ही इन वार्डों में सांस ले रहे थे. जब मैं अपने रूम पर आया तो तड़के साढ़े तीन बज रहे थे. अगली सुबह फिर अस्पताल जाना था उन नवजात नौनिहालों को देखने जिनको हम सबने बिना आपा खोये आग, धुएं से बचाया था. 


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