MP: सीहोर में छिड़ी थी आजादी की पहली लड़ाई, एक ही दिन में 356 क्रांतिकारियों ने दी थी शहादत
Independence Day 2024 Special: आजादी की 78 वीं वर्षगांठ के मौके पर आज हम आपको मध्य प्रदेश के सीहोर में अंग्रेजों के नरसंहार की एक ऐसी कहानी बताएंगे, जिसे सुनकर हर राष्ट्रभक्त के रोंगटे खड़े हो जाएंगे.
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Sehore News: भारत की आजादी के लिए पहली लड़ाई सीहोर में छिड़ी थी. ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ 1857 की क्रांति को भारतीय इतिहास में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के रूप में देखा जाता है. मेरठ से 10 मई 1857 को सैनिक विद्रोह के रूप में शुरू हुई इस क्रांति ने ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ विद्रोह का बिगुल फूंका. ब्रिटिश शासन के खिलाफ लोगों में असंतोष फैलता गया और धीरे-धीरे इस आंदोलन ने उग्र रूप ले लिया. पूरे देश के साथ मध्य भारत में भी अंग्रेजी हुकूमत ने इस विद्रोह को दबाने के लिए अनेक क्रांतिकारियों को गोली से भून दिया.
इतिहासकार ओमदीप के मुताबिक अंग्रेजी शासन के खिलाफ मध्य भारत में चल रहे विद्रोह में राजधानी भोपाल के नजदीकी जिले सीहोर की बर्बरतापूर्ण घटना को जलियांवाला बाग हत्याकांड की तरह माना जाता है. 10 मई, 1857 को मेरठ की क्रांति से पहले ही सीहोर में क्रांति की ज्वाला सुलग गई थी. मेवाड़ा उत्तर भारत से होती हुई क्रांतिकारी चपातियां 13 जून, 1857 को सीहोर और ग्रामीण क्षेत्रों में पहुंच गई थी.
इस वजह से उग्र हुए सैनिक
1 अगस्त, 1857 को छावनी के सैनिकों को नए कारतूस दिए गए. इन कारतूसों में सूअर और गाय की चर्बी लगी हुई थी. जांच में सुअर और गाय की चर्बी के उपयोग की बात सामने आने पर सैनिकों में आक्रोश और बढ़ गया. सीहोर छावनी के सैनिकों ने सीहोर कॉन्टिनेंट पर लगा अंग्रेजों का झंडा उतार कर जला दिया और महावीर कोठ और वलीशाह के संयुक्त नेतृत्व में स्वतंत्र सिपाही बहादुर सरकार का ऐलान किया. जनरल ह्यूरोज को जब सीहोर की क्रांतिकारी गतिविधियों के बारे में जानकारी मिली तो उन्होंने इसे बलपूर्वक कुचलने के आदेश दिए.
356 क्रांतिकारियों को गोलियों से भूना
सीहोर में जनरल ह्यूरोज के आदेश पर 14 जनवरी 1858 को सभी 356 क्रांतिकारियों को जेल से निकालकर सीवन नदी किनारे सैकड़ाखेड़ी चांदमारी मैदान में लाया गया. इन सभी क्रांतिकारियों को एक साथ गोलियों से भून दिया गया था. जनरल ह्यूरोज इन क्रांतिकारियों के शव पेड़ों पर लटकाने के आदेश दिए और शवों को पेड़ों पर लटकाकर छोड़ दिया गया था. दो दिन बाद आसपास के ग्रामवासियों ने इन क्रांतिकारियों के शवों को पेड़ से उतारकर इसी मैदान में दफनाया था. 14 जनवरी, 15 अगस्त और 24 जनवरी के विशेष मौके पर समाजसेवी इस स्थान पर पहुंचकर श्रद्धासुमन अर्पित करते हैं.
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