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बलिदान दिवस पर विशेष: शहीद Kunwar Chain Singh की अगुवाई में सैनिकों ने छुड़ाए अंग्रेजों के पसीने

Shaheed Kunwar Chain Singh: देश में पहली क्रांति 1857 में हुई, इस क्रांति की लौ इससे ठीक 33 साल पहले कुंवर चैन सिंह की अगुवाई में सीहोर में जलाई जा चुकी थी. आज ही के दिन उन्होंने वीरगति प्राप्त की थी.

Shaheed Kunwar Chain Singh Martyrdom Day: देश में ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ पहली सशस्त्र क्रांति 1857 में प्रारंभ हुई. इसके बाद देश भर में अंग्रेजो के खिलाफ क्रांति की मशाल जल उठी और अनेक वीर सपूतों ने अंग्रेजी सेना से लड़ाई करते हुए अपने प्राणों का बलिदान दिया. इस क्रांति के नायक शहीद मंगल पाण्डे को माना जाता है. 

मेरठ क्रांति से 33 साल पहले ही इस क्रांति की शुरूआत हो चुकी थी. मालवा अंचल में अनेक वीरों ने अंग्रेजी सेना से बगावत कर युद्ध लड़े और अपने प्राणों का बलिदान किया. स्वतंत्रता के इतिहास में सीहोर जिले की अन्य घटनाओं के साथ ही अमर शहीद कुंवर चैन सिंह की शहादत भी स्वर्णिम अक्षरों में दर्ज है. 

अंग्रेज हुकूमत को मानते थे गुलामी की निशानी
सन् 1818 में ईस्ट इंडिया कंपनी और भोपाल के तत्कालीन नवाब के बीच हुए समझौते के बाद कंपनी ने सीहोर में एक हजार सैनिकों की छावनी बनाई. कंपनी के जरिया नियुक्त पॉलिटिकल एजेंट मैडॉक को इस फौजी टुकड़ी की कमान सौंपी गई. 

समझौते के तहत मैडॉक को भोपाल सहित नरसिंहगढ़, खिलचीपुर और राजगढ़ रियासत से संबंधित राजनीतिक अधिकार दिए गए. इस फैसले को नरसिंहगढ़ रियासत के युवराज अमर शहीद कुंवर चैन सिंह ने गुलामी की निशानी मानते हुए स्वीकार नहीं किया और अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ विद्रोह कर दिया. 

उन्होंने अंग्रेजों के वफादार दीवान आनंदराम बख्शी और मंत्री रूपराम बोहरा को मार दिया. इन दोनों की हत्या के अभियोग से बचने के लिए अंग्रेजो ने कुछ शर्तें रखी जिसे कुंवर चैन सिंह ने ठुकरा दिया. 

अंग्रेज अधिकारी का नहीं माना आदेश
अमर शहीद कुंवर चैन सिंह 24 जुलाई 1824 की दोपहर अपने घोड़े पर बैठकर कैंप से बाहर जाने लगे, तब अंग्रेजों के कर्मचारियों ने उन्हें यह कहते हुए रोका दिया कि आपको कैम्प से बाहर जाने की इजाजत नहीं है. इससे कुंवर चैन सिंह का स्वाभिमान आहत हुआ. 

उन्हें ब्रिटिश हुकुमत की गुलामी कतई स्वीकार नहीं थी. वे मेडॉक और जॉनसन के आदेश की अवहेलना कर कैम्प से बाहर चले गए. मना करने के बाद भी कुंवर चैन सिंह के बाहर चले जाने से युद्ध की आशंका के चलते मेडॉक ने सेना को बुलवाने का प्रबंध किया और यह सेना डाबरी की छावनी, सीहोर की छावनी, भोपाल और होशंगाबाद से बुलवाई गई थी. 

43 सैनिकों के साथ अंग्रेजों के छुड़ाए छक्के
लगभग 5 से 6 हजार सैनिक सीहोर पहुंच चुके थे. अंग्रेजी सेना ने 24 जुलाई 1824 की रात्रि में कुंवर चैन सिंह के कैंप को घेर लिया. इसके बाद अंग्रेजी फौज ने उन पर आक्रमण कर दिया गया. 

कुंवर चैन सिंह अपने विश्वस्त साथी हिम्मत खां और बहादुर खां सहित 43 सैनिकों के साथ अंग्रेजी फौज का वीरतापूर्वक सामना करते हुए वीरगति को प्राप्त हुए. उन्होंने अपने प्राणों की आहुति देकर अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ सशस्त्र विद्रोह का आगाज किया.

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