कारगिल: कुछ साथी शहीद हो चुके थे...पाकिस्तानी चला रहे थे मशीनगन, भिंड के सुल्तान ने कुछ इस तरह फतेह की थी तोलोलिंग चोटी
Kargil Vijay Diwas 2022: सुल्तान सिंह नरवरिया के कुछ साथी शहीद हो चुके थे, उनको भी कई गोलियां लग चुकी थीं लेकिन 8 से 10 दुश्मनों को ढेर करते हुए उन्होंने तोलोलिंग चोटी पर भारत का झंडा लहरा दिया.
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Madhya Pradesh News: बीहड़, बागी और बंदूक के लिए बदनाम मध्य प्रदेश (Madhya Pradesh) के भिंड (Bhind) जिले का एक और पहलू है, जो देशवासियों की नजरों से अछूता है. आज हम आपको बताएंगे चंबल अंचल के उन वीर सपूतों की कहानी जिन्होंने अपने अदम्य साहस, शौर्य और वीरता की दम पर 1999 के करगिल युद्ध (Kargil War) को अपने खून से खींचकर विजयश्री हासिल की थी. चंबल अंचल के भिंड जिले के नौजवानों का देश की सुरक्षा में बड़ा योगदान है. चाहें वह 1962 का चीन युद्ध हो या 1971 का पाकिस्तान से युद्ध या 1999 में पाकिस्तान के खिलाफ करगिल युद्ध. हर युद्ध में भिंड जिले के नौजवानों के बलिदान की एक लंबी फेहरिस्त है. आइए जानते हैं ऐसे ही कुछ जवानों की कहानियां.
शहीद हुए थे भारतीय सेना के 527 जवान
दरअसल भारत और पाकिस्तान के बीच आखिरी युद्ध 1999 में करगिल में लड़ा गया था. 18 हजार फीट की ऊंचाई पर भारत के सैनिकों ने दुश्मन को मुंहतोड़ जवाब दिया था. 26 जुलाई 1999 को भारत की जीत की आधिकारिक घोषणा हुई थी. कारगिल युद्ध में भारत के 527 वीर सपूत शहीद हुए थे. हर साल 26 जुलाई के दिन इन वीर शहीदों के बलिदान को याद करने के लिए 'करगिल विजय दिवस' मनाया जाता है.
भिंड के तीन सपूत हुए थे शहीद
करगिल युद्ध में शहीद हुए 527 वीर योद्धाओं में से तीन सपूत मध्य प्रदेश के छोटे से जिले भिंड के थे. इनमें द्वितीय बटालियन राजपुताना राइफल्स रेजिमेंट के शहीद हवलदार सुल्तान सिंह नरवरिया की शहादत यादगार है. वे 1999 में हुए करगिल युद्ध में मध्य प्रदेश के पहले शहीद थे. भिंड के छोटे से गांव पीपरी में 16 जून 1960 को सुल्तान सिंह नरवरिया का जन्म हुआ था. उस दौरान परिवार की माली हालत ठीक नहीं थी. वे बड़े हुए तो किसी तरह उन्होंने हायर सेकंडरी तक पढ़ाई पूरी की. उन्हें पता चला कि ग्वालियर में सेना के लिए भर्ती चल रही है तो वह घर से बिना बताए चले गए. साल 1979 में उनका चयन राजपूताना राइफल्स में हो गया था. वीर शहीद सुल्तान सिंह नरवरिया का परिवार आज भी भिंड के मेहगाव में रहता है.
जानकारी मिलते ही रवाना हुए
शहीद सुल्तान सिंह के बेटे देवेंद्र नरवरिया ने बताया 1999 में जब करगिल युद्ध शुरू हुआ तो उसकी सूचना एक टेलीफोन के जरिए उनके पिता हवलदार सुल्तान सिंह नरवरिया को भी मिली. वे उन दिनों छुट्टी पर घर आए हुए थे. जानकारी मिलते ही वे युद्ध के लिए रवाना हो गए. शहीद सुल्तान सिंह नरवरिया ऑपरेशन विजय का हिस्सा बने थे. दुश्मन पाकिस्तानी सेना द्वारा कब्जे में ली गई तोलोलिंग पहाड़ी पर द्रास सेक्टर पॉइंट 4590 रॉक एरिया पर बनी चौकी को आजाद कराने का टारगेट दिया गया था. इसके लिए सुलतान सिंह नरवरिया को एक टुकड़ी का सेक्शन कमांडर 10 जून को बनाया गया. वे 12-13 जून की दरमियानी रात माइनस डिग्री टेंपरेचर में अपनी टुकड़ी के साथ आगे बढ़े. इस बीच लगातार गोलीबारी में कुछ सैनिक शहीद हो गए थे.
चोटी पर लहराया भारत का झंडा
दुश्मन मिडिल मशीन गन (एमएमजी) से ऊपर से गोलियां बरसा रहा था. चौकी को वापस लेने के संकल्प के साथ भगवान राम का जयकारा लगाते हुए उन्होंने अपने साथी जवानों को अपने पीछे आने के निर्देश देते हुए खुद आगे बढ़े और फायरिंग करते हुए चौकी तक जा पहुंचे. वे सबसे आगे थे. दुश्मन की एमएमजी गन की गोलियां खत्म हुईं तो दुश्मनों ने बंदूकों से फायर किया. इस दौरान सुल्तान सिंह नरवरिया के कुछ साथी जवान शहीद हो चुके थे. उनको भी कई गोलियां लग चुकी थीं, लेकिन 8 से 10 दुश्मनों को ढेर करते हुए उन्होंने टास्क पूरा किया और तोलोलिंग चोटी पर भारत का झंडा लहरा दिया.
नवाजा गया वीर चक्र से
सुल्तान सिंह नरवरिया अपने 17 साथी जवानों के साथ शहीद हो गए. युद्ध समाप्त होने के बाद उनकी वीरता के लिए 2002 में भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति ने उन्हें सेना के दूसरे सबसे बड़े सम्मान 'वीर चक्र' से नवाजा. भारत सरकार ने उनके परिवार के लिए जमीन देकर घर का निर्माण कराया. परिवार को मेहगाव में एक पेट्रोल पंप भी दिया गया ताकि उनके परिवार को जीवन यापन में कोई असुविधा ना हो. भारत सरकार से मिले सम्मान से उनका परिवार संतुष्ट हैं, लेकिन मध्य प्रदेश सरकार की ओर से किए गए बर्ताव से वे कुछ आहत हैं.
परिवार को नहीं मिली नौकरी
सुल्तान सिंह के बेटे देवेंद्र बताते हैं कि पिता की शहादत पर एमपी सरकार ने परिवार के एक सदस्य को नौकरी देने की बात कही गई थी, लेकिन कई बार प्रयास करने के बाद भी उनके परिवार के किसी सदस्य को सरकारी नौकरी नहीं मिली है. अब वे इसके लिए प्रयास नहीं करना चाहते हैं. देवेंद्र सिंह नरवरिया को इस बात का दुख है कि अंतिम समय में वे अपने पिता को न देख सके. उनकी शहादत की सूचना भी समाचार पत्रों और राजपुताना रायफल्स के दिल्ली बेस से एक जवान भेज कर दी गई थी. लेकिन दुख से ज्यादा उन्हें फख्र है कि उनके पिता देश की रक्षा करते हुए शहीद हुए. देवेंद्र नरवरिया भी सेना में जाना चाहते थे, लेकिन परिवार की जिम्मेदारियों को चलते नहीं जा पाए. इस बार वे नगरीय निकाय चुनाव में मेहगांव नगर परिषद से पार्षद चुने गए हैं. वह समाज सेवा करना चाहते हैं. देवेंद्र नरवरिया अपने बच्चों को आगे आर्मी में भेजना चाहते हैं.
ये जवान भी हुए थे शहीद
भिंड के ही लांस नायक करन सिंह, ग्रेनेडियर दिनेश सिंह भदौरिया भी करगिल में शहीद हो गए थे. उनको भी मरणोपरांत वीर चक्र से नवाजा गया था. दिनेश सिंह भदोरिया करगिल युद्ध की ऑपरेशन विजय में भी शामिल हुए और अदम्य साहस का परिचय देते हुए पाकिस्तानी सेना के दांत खट्टे किए थे. बाद में 31 जुलाई 2000 को कारगिल क्षेत्र में पाकिस्तानियों के घुसपैठ के दौरान हुई मुठभेड़ में दिनेश सिंह भदौरिया की भी शहादत हो गई थी. दिनेश सिंह भदोरिया की शहादत के किस्से आज भी लोग बहादुरी से सुनाते हैं.
भिंड जिले के पूर्व थानाक्षेत्र के गांव सगरा के करण सिंह भारतीय सेना की राजपूत रेजीमेंट में भर्ती हुए थे. करगिल युद्ध के भैया ऑपरेशन में शामिल होकर पाकिस्तानी घुसपैठियों को बड़ी बहादुरी और वीरता के साथ सीमा पार खदेड़ा था. उनके किस्से खूब मशहूर हैं. युद्ध के दौरान 16 नवंबर 1999 को करगिल इलाके में घुसपैठियों से हुई मुठभेड़ में लांस नायक करण सिंह चंबल की माटी का नाम रोशन करते हुए शहीद हो गए थे. उन्हें मरणोपरांत वीर चक्र से सम्मानित किया गया.
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