MP News: मध्य प्रदेश के टीकमगढ़ द्वादश सिंह ज्योतिर्लिंगों की महिमा धर्म प्राण जनता के मन में सदियों से व्याप्त है. ये राष्ट्र की सांस्कृतिक विरासत के साथ पवित्र तीर्थ भी है कौन जाने क्या है इन पाषाणों में. बुंदेलखंड में हालांकि एक भी ज्योतिर्लिंग नहीं है, किन्तु अद्वितीय शिव मंदिरों की कमी नहीं है. इन मंदिरों की महिमा भले ही समूचे भारत में न फैल पाई हो यह अलग बात है, किन्तु मध्य प्रदेश व उत्तर प्रदेश सहित समूचे उत्तर भारत के नागरिकों के जीवन से जुड़े ऐसे ही तीर्थ का नाम है कुंडेश्वर. 


कुंडेश्वर मध्यप्रदेश के जिला मुख्यालय टीकमगढ़ से दक्षिण की ओर ललितपुर मार्ग पर 6 कि.मी. 24.39 उत्तरी आक्षांश एवं 78.49 कि पूर्वी देशांतर पर स्थित है. टीकमगढ़ जनपद का शिवपुरी नामक ग्राम कुण्डेश्वर तीर्थ को अपने में समेटे है. भगवान शंकर के चरणों को पखारती जमड़ार नदी गंगा सी लगती है. दूर तक फैला खैराई वन शीशम, करधई, करोंदी और सागौन के अपने वृक्षों के कारण हृदयहीन मन में भी स्पंदन पैदा करने में सक्षम है.


क्यों कहा जाने लगा कुंडेश्वर? 
बताया जाता है कि कुंडेश्वर का साढ़े आठ सौ साल पुराना इतिहास है लेकिन इसके बारे में स्पष्ट जानकारी नहीं है. प्राचीनकाल में यहां एक छोटी सी बस्ती थी. एक अनुसूचित जाति की महिला अपने घर में जमीन में बनी ओखली में धान कूट रही थी कि अचानक उसने हाथ से धान पलटते समय पाया कि ओखली के चावल रक्त रंजित हो गए है. वह घबराकर मिट्टी के कूड़े से ओखली ढक्कर लोगों को बुलाने भागी, लौटने पर सभी ने देखा कि स्वमं-भू शिवलिंग कूड़े को सिर पर रखकर प्रकट हो गए. इसी दिन से वे कूड़ा देव कुंडेश्वर कहे जाने लगे. 


एक अन्य किवदंती के अनुसार, जमड़ार नदी के एक चट्टानी पहाड़ी को काटकर आगे बढ़ाने के लिए एक प्राकृतिक कुण्ड सा बन गया है. इसी कुंड के दायें तट पर शिवजी का प्राचीन मंदिर स्थित है कुंड के समीप स्थित होने से इनका नाम कुंडेश्वर महादेव पड़ा होगा.


तीसरी लोक मान्यता के अनुसार, उत्तरप्रदेश के ललितपुर जिले की प्राचीन ऐतिहासिक नगरी बानपुर महाराजा बाणासुर की राजधानी थी. उनकी पुत्री राजकुमारी ऊषा के द्वारा महाभारत काल में शिवजी की गोपनीयआराधना इसी अथाह कुण्ड में की गई. क्योंकि इस आराधना के लिए राजकुमारी ऊषा रात्रि में बिना सूचना के यहां आती थी. बाद में राजा को राजकुमारी के अचानक रात्रि में कहीं जाने की सूचना प्राप्त होने हुई तो उनका पीछा किया गया और गोपनीय आराधना का भेद खुल गया. घोर वन में कुण्ड के किनारे स्थित होने के कारण ये कुंडेश्वर के नाम से विख्यात हुए.


सन 1932 में तत्कालीन राजशासन के मंत्री अश्वनी कुमार पांडे ने छोटे से मठ में स्थित भगवान शिव के मंदिर का जीर्णोद्धार कराया. जीर्णोद्धार के समय में की गई खुदाई में लगभग 5 फुट नीचे शिवजी की प्रतिमा में पहनी हुई पत्थर की जलाधारी निकली जो संभवयता शताब्दियां पूर्व भगवान शंकर को पहनाई गई होगी. प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार 25 फुट तक ख़ुदाई होने पर भी शिवलिंग यथावत मिला किन्तु जल का स्रोत बढ़ जाने के कारण आगे की खुदाई को बंद करना पड़ा. जहां एक एक भव्य मंदिर का निर्माण किया गया, तब से आज तक निरंतर यह स्थान अपना विस्तार करते करते इतना सुंदर व दर्शनीय हो गया है.


क्या हर साल बढ़ता है शिवलिंग? 
कुंडेश्वर धाम के शिवलिंग के बारे में यह भी मान्यता है कि यह शिवलिंग एक चावल के दाने बराबर प्रतिवर्ष बढ़ता है. शिवधाम में पर्यटकों का वर्षभर तांता लगा रहता है. महाशिवरात्रि का दिन कुंडेश्वर में हर- हर महादेव के नारों से शुरू होता है, जहां रात्रि के अंतिम प्रहर से ही नदी में स्नान के लिए नागरिकों में होड़ लग जाती है. दिन भर पूजा अर्चना के पश्चात सांझ ढलते ढलते कुण्डेश्वर के शिवालय में शिव विवाह का माहौल दिखाई देने लगता है. जहां परपरागत वस्त्रों से सजी महिलाएं शाम से ही एकत्रित हो जाती है.


मंत्रमुग्ध करने वाली होती है शंकर जी की वर यात्रा 
संध्या आरती के पश्चात सुसज्जित विमान में शंकर जी की वर यात्रा प्रारंभ होती हैं हाथी, घोड़ों, बैंडों तथा अनेक बाजो-गाजो के साथ लोक नृत्य करते हुए अपार जनसमूह वर यात्रा का अनुगमन करता है. बारात के लौट आने पर भारी आतिशबाजी के बीच वर का टीका होता है. वैदिक मंत्रों के साथ टीका के बाद आधी रात तक दर्शन पूजन के लिए लोगों का आना-जाना लगा रहता है.


इसके बाद अर्धरात्रि के बाद सप्तपदी के अनुसार वर और कन्या पक्ष के पंडित शिव और पार्वती के विवाह की रश्म पूरी करते है. इस अवसर पर उपस्थित यजमान जिसे हिमांचल कहते है. कन्या दान करता है और इसके साथ ही पांव पखारने की होड़ भक्तों में लग जाती है. दूसरे दिन प्रातकाल फाग की रश्म होती है जहां एक दूसरे को गुलाल लगाकर इस विवाह महोत्सव का समापन होता है.


शिवरात्रि में 4 प्रहर की आरतियों का वैदिक महत्व
शिवरात्रि में 4 प्रहर की चारों आरतियों तथा रात्रि जागरण का वैदिक महत्व है. इसलिए मंदिर परिसर में उपस्थित हजारों नर-नारी यहां रहकर पुण्य अर्जन करते है. इसके अलावा मकर संक्रांति, जलविहार पर भी धाम में मेले का आयोजन किया जाता है. श्रावण मास में भी भगवान भोलेनाथ की इस नगरी में भक्तों का मेला लगा रहता है. सन 1980 से मंदिर का प्रबंध लोक न्यास के अंतर्गत है और इन दो दशकों में लोक न्यास ने काफी विकास कार्य किए है तथा दर्शनार्थियों के सुविधा के लिए व्यवस्था की है, किन्तु फिर भी अभी यहां बहुत कुछ किया जाना बाकी है.


संतोष शुक्ला की रिपोर्ट


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