Madhya Pradesh News: मध्य प्रदेश हाईकोर्ट के एक्टिंग चीफ जस्टिस शील नागू और जस्टिस अमरनाथ केसरवानी की डबल बेंच ने हाईकोर्ट में सात जजों की नियुक्ति को चुनौती देने वाली याचिका खारिज कर दी है. कोर्ट ने अपने आदेश में कहा कि न्यायपालिका (उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय) में वर्ग विशेष जैसे एससी, एसटी, ओबीसी आदि को प्रतिनिधित्व देने का संविधान में कोई प्रावधान नहीं है. हाईकोर्ट जज का पद सिविल पोस्ट नहीं है, जिसके लिए भर्ती प्रक्रिया लागू की जाए.


हाईकोर्ट के एक्टिंग चीफ जस्टिस शील नागू और जस्टिस अमरनाथ केसरवानी ने अपने फैसले में कहा कि "न्यायाधीश की नियुक्ति के लिए कॉलेजियम का अस्तित्व कानूनी रूप से पवित्र है. देश का कानून न केवल हर अदालत पर बल्कि सभी पर भी बाध्यकारी है, चाहे वह कार्यपालिका हो या विधायिका हो. ऐसा प्रतीत होता है कि याचिकाकर्ता ने गलत धारणा के तहत याचिका दायर की है."


कोर्ट ने आगे का कि "वह ऐसा समझता है कि उच्च न्यायालय के न्यायाधीश का कार्यालय एक सिविल पद के समान है, जबकि यह वास्तविकता से बहुत दूर है. हाईकोर्ट का न्यायाधीश एक संवैधानिक कार्यालय है, जो केवल और केवल संविधानिक प्रक्रिया के तहत भरा जाता है. हाईकोर्ट जज की नियुक्ति के लिए संविधान में किसी भी विज्ञापन को जारी करने का प्रावधान नहीं है. इनके चयन के लिए लिखित या मौखिक परीक्षा का आयोजन नहीं किया जा सकता."


याचिका में क्या कहा गया?
बता दे कि ओबीसी एडवोकेट्स वेलफेयर एसोसिएशन के सदस्य अधिवक्ता मारुति सौंधिया ने हाईकोर्ट में याचिका दायर कर सात जजों की नियुक्ति को चुनौती दी थी. उनकी ओर से अधिवक्ता उदय कुमार साहू ने दलील दी थी कि हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट द्वारा संविधान में विहित सामाजिक न्याय और आनुपातिक प्रतिनिधित्व के सिद्धांत को नजरअंदाज किया. साथ ही एक ही जाति, वर्ग और परिवार विशेष के ही अधिवक्ताओं के नाम पीढ़ी दर पीढ़ी भेजे जाते हैं. 


उन्होंने तर्क दिया कि भारत के संविधान में सामाजिक न्याय और आर्थिक न्याय की आधार शिला रखी गई है. उक्त सामाजिक न्याय को साकार करने के लिए न्यायपालिका में सभी वर्गों का आनुपातिक प्रतिनिधित्व होना आवश्यक है. उन्होंने अपनी दलीलों के संबंध में करिया मुंडा कमेटी की रिपोर्ट का हवाला भी दिया था. रिपोर्ट में कहा गया था कि हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में एक जाति वर्ग विशेष के ही जजों की नियुक्ति होने से बहुसंख्यक समाज के लोगों को उनके संवैधानिक अधिकारों से वंचित होना पड़ रहा है.



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