MP Assembly Election 2023: मध्य प्रदेश में सत्ता की चाबी पांच इलाकों में बंटी है. प्रदेश को भौगोलिक रूप से महाकौशल, ग्वालियर-चंबल, मध्य भारत, निमाड़-मालवा, विंध्य और बुंदेलखंड इलाकों में बांटा गया है. इन इलाकों में जातीय और सामाजिक समीकरण अलग-अलग हैं. दोनों दलों के क्षत्रपों का प्रभाव भी है. नवंबर माह में होने वाले विधानसभा चुनाव के मद्देनजर आज हम महाकौशल इलाके का राजनीतिक विश्लेषण करेंगे. 


राजनीतिक दृष्टि से महाकौशल में जबलपुर, छिंदवाड़ा, कटनी, सिवनी, नरसिंहपुर, मंडला, डिंडौरी और बालाघाट जिले हैं. महाकौशल के चुनावी नतीजे हमेशा चौकाने वाले रहे हैं. 2018 के चुनाव में बीजेपी को महाकौशल इलाके से निराशा हाथ लगी थी. इसकी बड़ी वजह आदिवासियों की नाराजगी मानी गई थी.


पांच इलाकों से गुजरती सत्ता की चाबी


कमलनाथ को मुख्यमंत्री का चेहरा बनाए जाने से कांग्रेस को फायदा हुआ था. कमलनाथ के गृह जिले छिंदवाड़ा की सभी 7 सीटें कांग्रेस की झोली में गई थी. जबलपुर में कांग्रेस को 8 में से 4 सीट मिली थी. अब बड़ा सवाल है कि क्या 2023 के विधानसभा चुनाव में भी कांग्रेस शानदार प्रदर्शन कर पाएगी या बीजेपी को बड़ी सफलता मिलेगी?


मध्य प्रदेश के वरिष्ठ पत्रकार रविंद्र दुबे कहते हैं कि महाकौशल में कांग्रेस को 2018 का प्रदर्शन दोहराने की चुनौती है. बीजेपी को प्रभाव बढ़ाने के लिए अधिक मेहनत करनी होगी. पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ महाकौशल इलाके से आते हैं. महाकौशल की 38 सीटों के नतीजे तय करेंगे कि 2023 के सत्ता संग्राम में अगली सरकार की चाबी किसे मिलेगी? दुबे का अनुमान है कि आज की तारीख में चुनाव होने पर कांग्रेस को बढ़त और बीजेपी को नुकसान हो सकता है.


महाकौशल की 38 सीटों पर दारोमदार 


माना जा रहा है कि 2023 के विधानसभा चुनाव में महाकौशल की 38 सीटों पर सत्ता का दारोमदार रहेगा. महाकौशल से 2018 में बीजेपी को मात्र 13 सीटों पर संतोष करना पड़ा था. कांग्रेस के खाते में 24 सीट गई थी. एक सीट कांग्रेसी विचारधारा के उम्मीदवार ने निर्दलीय चुनाव लड़कर जीती थी. कांग्रेस के लिए प्रदर्शन 2013 चुनाव के मुकाबले डबल खुशी देने वाला था. 2013 के आंकड़े देखने पर स्पष्ट है कि बीजेपी को 24 और कांग्रेस को 13 सीट मिली थी. एक सीट पर निर्दलीय ने जीत का परचम लहराया था. 


वर्तमान परिदृश्य देखने से स्पष्ट है कि बीजेपी को सत्ता विरोधी लहर परेशान करेगा. 2013 के प्रदर्शन को दोहराने के लिए बीजेपी को कड़ी मेहनत करनी होगी. बीजेपी से आदिवासी वोट बैंक छिटका है, साथ में महंगाई, बेरोजगारी और राज्य कर्मचारियों की नाराजगी भी चरम पर है. यही वजह है कि बीजेपी नए वोटर की तलाश में सक्रिय है. उसने मुख्यमंत्री लालडी बहना योजना के माध्यम से प्रदेश की आधी आबादी को साधने का बड़ा दांव खेला है.


राजनीतिक जानकार बताते हैं कि बीजेपी नए आदिवासी मतदाता को आकर्षित करने के लिए मुहिम चला रही है. शिवराज सरकार ने 'पेसा एक्ट' का दांव इसी हिसाब से चला है. आदिवासी नायकों का भी खूब महिमा मंडन किया जा रहा है. हालांकि, इससे मतदाता कितना प्रभावित होगा यह आने वाला समय बताएगा? वहीं, कांग्रेस की सक्रियता भी कम नहीं है. जब भी महाकौशल की बात होती है तो कांग्रेस के एकछत्र नेता पूर्व सीएम कमलनाथ का नाम आता है.


महाकौशल में कांग्रेस के अन्य बड़े नेताओं का उतना प्रभाव नहीं है. कुछ क्षेत्रों में दिग्विजय सिंह समर्थकों का खासा प्रभाव है. कांग्रेस का फोकस बीजेपी से नाराज मतदाता पर है. इसी वजह से कांग्रेस ने आदिवासी नेताओं को सक्रिय किया है. माना जाता है कि पूर्व सीएम कमलनाथ और दिग्विजय सिंह की इन क्षेत्रों में खासी पकड़ है. कांग्रेस इसी का लाभ उठाने की जुगत में है. कांग्रेस कमलनाथ सरकार के कामों को भी गिना रही है लेकिन सबसे अहम सवाल है कि जिन 24 सीटों पर कांग्रेस ने जीत हासिल की थी, क्या वहां बढ़त कायम रहेगी?


सत्ता के साथ नाराजगी भी समानांतर चलती है. शिवराज सरकार के प्रति नाराजगी मतदाता और कार्यकर्त्ता दोनों में दिखने लगी है. 2018 के बाद कांग्रेस की सरकार 15 महीने रही लेकिन प्रभावशाली नेता निगम-मंडल में नियुक्ति के लिए भोपाल के चक्कर लगाते रहे. इस दौरान कमलनाथ सरकार सिर्फ प्रशासनिक गतिविधियों को ठीक करने में लगी रही. इसी फेर में सरकार चली गईं. 15 माह बाद बीजेपी की सरकार आ तो आ गईं लेकिन बीजेपी कार्यकर्ता भी निगम-मंडल की आस में बैठा रहा गया.


अब चुनाव को मात्र 9 माह बचे हैं. ऐसे में कार्यकर्ता की तरफ विधायक और संगठन के पदाधिकारी आशा भरी नजरों से देख रहे हैं. दोनों ही दलों का कार्यकर्ता मुंह फुलाए बैठा है. पंचायत और नगरीय निकाय के चुनाव भी हो गए हैं. टिकट नहीं पानेवाले अब अपनी बारी का इंतजार कर रहे हैं. माना जा रहा है कि महाकौशल का चुनावी संग्राम बहुत रोचक होगा.


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