मध्य प्रदेश में 22 साल बाद एक बार फिर 16 नगर पालिका निगम के महापौर का फैसला पार्षद करने जा रहे हैं. अभी तक महापौर पद के प्रत्याशी को जनता सीधे चुनौती थी. नई प्रक्रिया से किस पार्टी को लाभ मिलेगा और किसे नुकसान होगा? इस बात का फैसला तो चुनाव परिणाम आने के बाद ही होगा, लेकिन इस फैसले से पार्षदों की राजनीतिक अहमियत पहले से और भी ज्यादा हो जाएगी.
इससे पहले पार्षद कब चुनते थे महापौर
नगर निकाय और पंचायत के चुनाव को लेकर सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने के बाद बीजेपी और कांग्रेस की राजनीति लगातार गर्मा रही है. इन सबके बीच इस बार मध्य प्रदेश के 16 जिलों की नगर निगम के महापौर पद पर भी प्रदेशभर की राजनेताओं की निगाहें है. इस बार 22 साल के बाद महापौर का चुनाव सीधे जनता से नहीं होते हुए पार्षदों द्वारा किया जाएगा.
माननीय न्यायालय ने 5 साल में चुनाव कराने की संवैधानिक प्रक्रिया को तुरंत अपनाने के निर्देश दिए हैं. इसी कड़ी में यह कहा जा रहा है कि जून में चुनाव होने की संभावना है. प्रदेश में 16 नगर निगम, 100 नगर पालिका और 264 नगर पंचायतें हैं. नई पद्धति से हो रहे चुनाव में पार्षद प्रत्याशियों की जीत को लेकर भी पार्टियां पूरी ताकत लगाएंगी. इसके अलावा पार्षदों का राजनीतिक रसूख पहले से ज्यादा दिखाई देगा. कांग्रेस से कई बार के पार्षद जितेंद्र तिलकर ने बताया कि 1994 से नगर निगम के चुनाव शुरू हुए हैं. पहले भी पार्षदों द्वारा ही महापौर का चयन किया जाता था, लेकिन साल 2000 के बाद से सीधे जनता महापौर चुनती आ रही है. 22 साल बाद फिर एक बार पार्षदों को महापौर चुनने का अधिकार मिला है.
शहर का प्रथम नागरिक होता है महापौर
नगर पालिका निगम में महापौर की काफी महत्ता होती है. महापौर को शहर का प्रथम नागरिक माना जाता है. पूर्व में महापौर को सरकार ने लाल बत्ती तक मुहैया कराई थी.वर्तमान समय मध्य प्रदेश में ग्वालियर, मुरैना, इंदौर, खंडवा, बुरहानपुर, उज्जैन, देवास, रतलाम, भोपाल, सागर, रीवा, सिंगरौली, सतना, जबलपुर, कटनी, छिंदवाड़ा में नगर पालिका निगम है. यहां पर महापौर के चुनाव होंगे, जिसे लेकर भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस पूरी ताकत लगाएगी. इन सभी नगर निगम में इंदौर की नगर निगम प्रदेश की सबसे बड़ी निगम में शुमार है.
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