Sehore News: राजधानी भोपाल से 40 किलोमीटर स्थित सीहोर में कभी देश भर से बैरोजगार की रोजगार की तलाश में आते हैं. यहां आने वाले हर व्यक्ति रोजगार की आस पूरी भी होती थी, क्योंकि सीहोर में दर्जन भर फैक्ट्रियां थी, जिनमें लोग काम कर अपने परिवार का भरण पोषण किया करते थे, लेकिन खराब राजनीति की वजह से एक-एक कर तमाम फैक्ट्रियां बंद होती गईं और अब यह खंडहर में तब्दील हो गई है तो वहीं अब सीहोर के युवा रोजगार की तलाश में प्रदेश सहित देश के अन्य शहरों में पलायन के लिए मजबूर रहते हैं.


शुगर मिल थी शहर पहचान
बता दें भोपाल रियासत का सबसे खास जिला सीहोर जिसमें तहसील हुजूर के नाम से भोपाल शामिल रहा. शुगर मिल बीएसआई लिमिटेड यानि भोपाल शुगर इंडस्ट्री लिमिटेड इस शहर की पहचान थी. शुगर फैक्ट्री के बगल में स्थित स्प्रिट मिल भी था. सोयाबीन साल्वेंट, एक्सट्रेक्शन प्लांट, पेपर मिल भी कई बेरोजगारों को रोजगार उपलब्ध कराया करते थे. पचामा सोयाबीन प्लांट, केटलग्रीड प्लांट, पोल फेक्टरी और एमपीईबी के वर्कशॉप आये. मंडी में तो पूरा इंडस्ट्रियल एरिया ही डेवलप हो गया. लेकन विडम्बना यह रही कि एक-एक कर तमाम बड़ी फैक्ट्रियां बंद होती गईं और शहर बेरोजगारी की चपेट में आ गया. 


भोपाल नवाब ने स्थापित की थी शुगर मिल
शहर के वरिष्ठ नागरिक रघुवरदयाल गोहिया के अनुसार साल 1938 में भोपाल के अंतिम नवाब हमीदुल्लाह खान ने शुगर मिल स्थापित की थी. इस फैक्ट्री में छह सौ स्थाई और एक हजार अस्थाई कर्मचारी रोजगार पाते थे. शुगर फैक्ट्री के पास 5 हजार 772 एकड़ भूमि थी, जो राजस्व रिकार्ड में दर्ज है. लेकिन शहर की खराब राजनीति की वजह से नेताओं में इच्छा शक्ति के अभाव की वजह से साल 2003 में यह फैक्ट्री पूरी तरह से बंद हो गई. 


शुगर मिल का इतिहास
इतिहासकारों के अनुसार भोपाल रियासत के अंतिम नवाब रहे हमीदुल्लाह खान ने सीहोर के लोगों को रोजगार देने के लिए सन 1938 में शुगर मिल की स्थापना की थी, जिसे उन्होंने 1942 तक कुशलता पूर्वक संचालित किया था. इस मिल में छह सौ स्थाई और करीब एक हजार अस्थाई कर्मचारी रोजगार से लगे थे और नगर का बाजार भी इसी मिल पर निर्भर था. इस मिल की 5 हजार 772 एकड़ भूमि सीलिंग एक्ट के तहत अब राजस्व विभाग के खाते में दर्ज हो गई ह. पूरे देश में सीहोर की पहचान शुगर मिल के नाम से रही है जो अब इसके बर्बाद होने के बाद खत्म हो गई है साथ ही इसके कामगार दर दर की ठोकरें खा रहे हैं.


1944 में खरीदी थी मुंबई के सेठ ने
साल 1944 के अगस्त माह में भोपाल नवाब ने इस मिल को मुंबई के सेठ जयंतीलाल भिवंडीवाला को बेच दिया, जिन्होंने 1984 तक मुनाफे में चलाया. फिर उन्होंने भी मुंबई के एक बड़े कबाड़ा कारोबारी सेठ वाधवाना को बेच दिया. बाद में यह फैक्ट्री के साथ ही शहर की अनेक फैक्ट्रियां एक-एक कर बंद होती चली गई. अब शहर के बेरोजगार युवा रोजगार की तलाश में अन्य शहरों की ओर पलायन करने को मजबूर हैं.


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