MP POLITICS: कहा जाता है कि राजनीति में दोस्ती और दुश्मनी लंबे समय तक नहीं चलती, लेकिन मध्य प्रदेश के दो राजघराने 220 साल से लगातार आमने-सामने हैं. 220 साल पहले रणभूमि के मैदान में जो युद्ध शुरू हुआ था, वह आज भी सियासत के मैदान में जारी है. दोनों ही राजघराने एक दूसरे को शिकस्त देने में लगे हुए हैं. मिशन 2023 में कौन सा राज घराना भारी पड़ेगा, यह तो वक्त बताएगा. लेकिन, राजघरानों के आमने-सामने होने से मध्य प्रदेश की राजनीति में गर्माहट के साथ-साथ दिलचस्पी बढ़ गई है. 


मिशन 2023 में यदि कांग्रेस को सत्ता तक पहुंचने के लिए सबसे बड़ी बाधा दिखाई दे रही है तो वह ग्वालियर- चंबल के आठ जिलों की 34 विधानसभा सीटें हैं. 2018 के विधानसभा चुनाव में यहां की 34 विधानसभा सीटों में से 26 पर कांग्रेस ने जीत हासिल की थी, जबकि एक सीट पर बीएसपी ने कब्जा जमाया था. शेष सभी सीटों पर बीजेपी ने परचम लहराया. केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया के बीजेपी में शामिल होने के बाद मध्य प्रदेश की 28 विधानसभा सीटों पर उपचुनाव हुए, इनमें से ग्वालियर-चंबल संभाग की सबसे ज्यादा 16 सीटों पर चुनाव लड़ा गया. इनमें से कांग्रेस मात्र 7 सीट पर ही जीत हासिल कर पाई. 


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कांग्रेस मिशन 2023 में साल 2018 का इतिहास दोहराना जाती है. इसी को लेकर कांग्रेस ने पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह के पुत्र और दो बार विधायक रहे पूर्व मंत्री जयवर्धन सिंह को ग्वालियर-चंबल संभाग की जिम्मेदारी सौंपी है. इस जिम्मेदारी के बाद सिंधिया और दिग्विजय सिंह राजघरानों की सियासी लड़ाई एक बार फिर गर्मा गई है. दिग्विजय सिंह और ज्योतिरादित्य सिंधिया भले ही पूर्व में कांग्रेस के सिपहसालार रहे हों, लेकिन उस समय भी दोनों ही इशारों ही इशारों में एक दूसरे पर कटाक्ष करने से नहीं चूके हैं. दोनों ही राजघरानों की लड़ाई 220 साल पुरानी है. अब यह लड़ाई दोनों ही नेताओं के अलग-अलग पार्टी में होने की वजह से और भी दिलचस्प हो गई है.


1802 में रणभूमि के मैदान से शुरू हुआ था राजघरानों का युद्ध
मध्य प्रदेश में राघोगढ़ और ग्वालियर दो रियासत रही हैं. इन पर सिंधिया और सिंह राजघराना राज करता आया है. 1802 में सिंधिया घराने के दौलत सिंह सिंधिया ने सिंह राजघराने के सांतवें राजा जयसिंह को रणभूमि में परास्त कर राघोगढ़ रियासत को ग्वालियर के अधीन कर लिया था. इसके बाद से ही सिंधिया और सिंह राजघराने में दुश्मनी शुरू हुई. रियासतें तो सरकार के अधीन हो गईं, लेकिन दुश्मनी अभी भी बरकरार है. यह दुश्मनी अब राजनीति के मैदान में दिखाई दे रही है. सियासत के गलियारों से यही आवाज आ रही है कि पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह सोची समझी सियासत के चलते अपने पुत्र जयवर्धन सिंह को ग्वालियर-चंबल संभाग के मैदान में उतारा है. 


पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह भारी पड़े
केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया और पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह के परिवार की राजनीति में दस्तक की बात की जाए, तो सबसे पहले सिंह परिवार के दिग्विजय सिंह के पिता बलभद्र सिंह ने साल 1951 में चुनाव लड़ा था. पहले सिंह परिवार राजनीति में आया. बलभद्र सिंह ने चुनाव जीतकर राजनीति में पहला कदम आगे बढ़ाया. इसके बाद साल 1957 में ज्योतिरादित्य सिंधिया की दादी विजय राजे सिंधिया गुना से सांसद का चुनाव लड़ा और सिंधिया परिवार की भी राजनीति में दस्तक हो गई. कहा जाता है कि जब जब सिंधिया परिवार को मध्यप्रदेश में शीर्ष नेतृत्व की बारी आई, उस समय पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह सबसे बड़ा रोड़ा बनकर सामने खड़े हुए. यह भी कहा जाता है कि सिंधिया परिवार मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री पद की दौड़ में आगे रहा है, मगर पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह की सियासी चाल के आगे सिंधिया परिवार को हमेशा पीछे रहना पड़ा. 


और दिग्विजय सिंह बन गए मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री
जब मध्य प्रदेश में साल 1993 में कांग्रेस की सरकार बनी तो मुख्यमंत्री पद की दौड़ में माधवराव सिंधिया सबसे आगे दिखाई दे रहे थे लेकिन पूर्व मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह का साथ मिलने की वजह से दिग्विजय सिंह का पलड़ा भारी पड़ा. इसके बाद लगातार दो बार दिग्विजय सिंह मुख्यमंत्री रहे. जब साल 2018 में कांग्रेस की जीत हुई और ज्योतिरादित्य सिंधिया के मुख्यमंत्री बनने की अटकलें तेज हुईं, तब भी पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने का कमलनाथ का नाम आगे रखवा दिया. वरिष्ठ नेता होने की वजह से कमलनाथ को मुख्यमंत्री पद की कुर्सी मिल गई. इस बार भी ज्योतिरादित्य सिंधिया को अपने कदम पीछे रखने पड़े.